सोमवार, 7 सितंबर 2009

सुसाइड नोट

कहानी : डॉ. पूर्णिमा शर्मा
सुसाइड नोट


और उसने बिजली के वे नंगे तार अपनी दोनों कलाइयों पर अच्छी तरह लपेट लिए। वह इस बार पहले की तरह चीखना नहीं चाहता था, जब स्विच आन करते ही जोर का झटका लगा था और वह दूर जा गिरा था। तार हाथ से छूट गए थे। वह ज़िंदा बच गया था। इस बार वह ऐसा नहीं होने देगा। कैसे जिए इस यातना भरी जिन्दगी को ? इससे तो मरना ही बेहतर है। वह मौत से नहीं डरता। जिन्दगी इतनी डरावनी है कि उसे मौत के सुहावनी होने का पक्का यकीन हो चला है। इसलिए इस बार वह मौत के किनारे से वापस लौटना नहीं चाहता। पूरा इंतजाम, पक्का इंतजाम करके मौत का बटन दबाना है उसे। तार लपेट लिए और इलेक्ट्रॉनिक्स की अपनी कापी में से बीच का पेज फाड़कर सुसाइड नोट लिख दिया। बहुत जरूरी है मरते हुए आदमी का सुसाइड नोट लिखना। वरना दुनिया जाने क्या-क्या कहानियाँ बनाए। पुलिसवाले जाने कौन-कौन सी थ्योरी लगाएँ। माँ-बाप लोगों को जवाब देते थक जाएँगे। मीडिया वाले आ गए तो और मुसीबत। इसलिए सुसाइड नोट लिखना बेहद जरूरी है मरनेवाले आदमी के लिए। उसने लिखा और बाकायदा कानूनी भाषा में लिखा - ‘‘मैं बी. रामकुमार सन आफ बालू और मंगम्मा, निवासी गाँव अल्लापुरम, मंडल गन्नवरम्, जिला कृष्णा, आंध्रप्रदेश का हूँ। मैं अपने पूरे हो शोह-अवास में यह नोट लिख रहा हूँ कि मैं अपनी मर्जी से आत्महत्या कर रहा हूँ। मैं अपने माता-पिता की मुसीबतों को और नहीं बढ़ाना चाहता। उन्हें मेरी मौत से कष्ट तो होगा, बेहद कष्ट होगा ; पर रोज-रोज की मुसीबतों से एक बार का कष्ट भला। अम्मा, अय्या, मुझे माफ कर देना। - बी. रामकुमार, 18 अगस्त 2009।’’


नोट लिखकर रामकुमार ने एक गहरी साँस ली और धीरे-धीरे छोड़ते हुए तनाव मुक्ति का अहसास किया। नोट पर हस्ताक्षर करते ही उसे अजीब तरह का हल्कापन महसूस हुआ। बस एक पल और। और वह सारे तनावों के पार चला जाएगा। उसने निःशंक भाव से स्विच आन करने के लिए दाएँ हाथ की तर्जनी बढ़ाई ही थी कि बिजली चली गई।


उफ! झुंझला उठा रामकुमार। अब पता नहीं, यह बिजली कितनी देर में आएगी। एक बार गई तो घंटा, दो घंटा तो आम बात है। फिर इस बार तो पूरे आंध्र प्रदेश में सूखा पड़ा है। पानी नहीं है तो बिजली भी नहीं। वह सोचने लगा। कैसा है यह पानी और बिजली का नाता। पानी आता है तो बिजली भी दमदमाती हुई आती है। खेत सोना उगलने लगते हैं! पानी नहीं आता तो बिजली भी चली जाती है। श्रीशैलम प्रोजेक्ट और नागार्जुन सागर की सारी व्यवस्थाएँ व्यर्थ हो जाती हैं । गाँव के गाँव अंधेरे में डूब जाते हैं। इसी अंधेरे में डूब गया है रामकुमार का भूत, भविष्य और वर्तमान।


रामकुमार का जन्म बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक के पहले साल आंध्र प्रदेश के एक गरीब मजदूर परिवार में हुआ। पिता बालचंद्रन और माँ मंगम्मा की आर्थिक स्थिति आम खेतिहर मजदूरों की तरह बेहद खस्ता और बदहाल थी। दोनों बड़े किसानों के खेतों में बुआई-कटाई जैसे काम करते थे, उनके पशुओं की सेवा टहल करते थे। जब खेती का काम न रहता, बालू मालिकों का सौदा-सुलफ खरीदकर ला देता। मंगा उनके घर के बरतन-भाँडे माँजती, आँगन लीपती। बदले में मुश्किल से इतना मिल पाता था कि चार जनों की गृहस्थी के लिए दो जून की रोटी जुड़ जाए। हाँ, चार जने। रामकुमार की छोटी बहन भी है न। दो ही साल तो छोटी है उससे चिन्नी।


भाई-बहन, दोनों, गाँव के स्कूल में ही पढ़ने जाते थे। रामकुमार को यह बात सदा चुभती थी कि उसके पास न ढंग के कपड़े थे, न जूते। बस्ता तो दसवीं तक एक ही रहा। उस जैसे और भी लड़के-लड़कियाँ थे कक्षा में। बड़े दीन-हीन से डरे-डरे दबे-सकुचे से। दूसरे वे बच्चे थे जिनकी वर्दी चमकती भी थी और कड़कती भी। श्रीनिवास के कपड़ों को छूकर राम की उँगलियों में जाने कैसी तो लहर उठती थी। उसके बाल भी महकते थे। राम के बाल हमेशा चिकटे रहते थे। माँ कड़वा तेल डालकर जैसे रही-सही कसर पूरी कर देती थी। बाल क्या कम थे राम के! सिर पर झुरमुट उठाए फिरता था। लड़के उसे छेड़ते भी थे इस बात के लिए। पर किसी की ज्यादा कुछ कहने की हिम्मत न थी। आखिर उसकी दोस्ती श्रीनिवास से जो थी। श्रीनिवास बड़ी हवेलीवाले रेड्डी का बेटा था। जाने कितनी जमीनें थीं उनकी! बालू ने मिन्नत करके यह व्यवस्था करा दी थी कि श्रीनिवास का बस्ता रामकुमार ढोकर ले जाया करेगा। बदले में किताब-कापियों का खर्चा मिल जाता था।


श्रीनिवास, लेकिन, भला लड़का था। या शायद इसलिए भला था कि बच्चा था। वह रामकुमार से वैसा बरताव नहीं करता था जैसा उसके पिता, बालू के साथ करते थे। वह उसे दोस्त समझता था। धीरे-धीरे इस दोस्ती का भी मूल्य राम को चुकाना पड़ा। श्रीनिवास का मन पढ़ाई में नहीं लगता था। पता नहीं क्यों उसे लगता था- क्या करना है पढ़ लिख कर ; सब कुछ तो है पुरखों का दिया! लेकिन रामकुमार की समझ में उसके माँ-बाप ने अपनी कथनी और करनी से यह बात अच्छी तरह डाल दी थी कि अगर अपने माँ-बाप जैसी दुर्गत से बचना है तो एक ही रास्ता है - पढ़ाई, पढ़ाई ; और पढ़ाई। हाँ दुर्गत ही तो थी। रामकुमार को याद है जब वह पाँचवी में था, उस साल खूब बारिश हुई थी। पानी घर तक घुस आया था। बारिश थमने पर भी खेतों में घुटनों घुटनों पानी खड़ा रहा था। वैसे में फसल की रोपाई के लिए माँ-बाप दोनों जाते थे। जाने कितनी बार किस-किस जहरीले कीड़े ने दोनों को डंक मारे होंगे। पर गरीबी के डंक के आगे साँप-बिच्छू के डंक की परवाह किसे थी ? गरीबी कैसे किसी बच्चे से उसका बचपन छीन लेती है, इसे रामकुमार ने कहानियों से पढ़कर नहीं, ज़िंदगी से सीखा था। आज भी उसका जी मितलाने लगता है जब आँखों के सामने बरसात के पानी में गले हुए माँ के पैर आ जाते हैं। लगातार हफ्तों पानी में घुसकर रोपाई करते-करते माँ के पैरों की उँगलियाँ गल गई थीं उस साल। उँगलियों के बीच गहरे सफेद घाव हो गए थे। उन घावों में कीचड़ धँसी रहती। धीरे-धीरे कीचड़ वहाँ जम गई और संक्रमण इतना बढ़ा कि छोटे-छोटे कीडे़ पड़ गए। गाँव के अस्पताल में डॉक्टर के नाम पर एक अर्धशिक्षित कम्पाउंडर है। उसने जाने क्या-क्या पाउडर लगाए, जाने कौन-कौन सी लाल-पीली दवाइयाँ लगाईं, पर घाव बढ़ते चले गए। शहर के अस्पताल जाने को कहना पड़ा आखिर। पर जो थोड़े-बहुत पैसे रोपाई से मिले थे, वे तो राशन में खर्च हो चुके थे। निदान, हवेली दरबार में गुहार लगानी पड़ी और वहाँ कोई सुनवाई नहीं हुई। पर इलाज तो करवाना था। यों राशन वाले सेठ से कर्जा लेना पड़ा। तब जाकर कहीं शहर के डॉक्टर नसीब हुए। माँ का पैर तो ठीक हो गया, पर उस बार के फटे कपड़े कभी सिले नहीं जा सके। दिल भी सदा के लिए फट गए मानो।


पर श्रीनिवास और रामकुमार की दोस्ती पर इससे फर्क नहीं पड़ा। बात दरअसल यह थी कि श्रीनिवास ठहरा कामचोर - सदा मटरगश्ती करता। रामकुमार के लिए पढ़ाई ही सब कुछ थी। स्कूल में भी पढ़ता, घर में भी मौका मिलते ही किताब लेकर बैठ जाता। माँ-बाप के साथ मजदूरी पर भी चला जाता, छुट्टी के दिन। मेहनत रंग लाई। वह स्कूल के सबसे मेधावी बच्चों में गिना जाने लगा। बालू मजदूर का बेटा एक दिन कुछ करके दिखाएगा - हर अध्यापक ने कभी न कभी यह बात जरूर कही होगी। अपनी मेहनत और प्रतिभा के बल पर राम कइयों की ईर्ष्या का पात्र बना तो कइयों ने उससे दोस्ती भी की। पर आज उसकी समझ में आ चुका है - लोगों की दोस्ती भी कैसे मतलब की दोस्ती होती है। कोई उससे दोस्ती करके अपने अहं को संतुष्ट करता था तो कोई उसकी सफलता का राज़ जानना चाहता था। जहाँ तक श्रीनिवास की दोस्ती थी, उसका कारण साफ था। उसका सारा लेखन कार्य रामकुमार को करना होता था। परीक्षा के समय वह उसे पढ़ाता ही नहीं था बल्कि रात रात भर बैठकर उसके लिए नकल की पर्चियाँ भी तैयार करता था जिन्हें श्रीनिवास रबड़ के छल्लों की सहायता से अपने हाथ-पैर पर बाँधकर परीक्षा लिखने जाता था। यह क्रम बरसों चलता रहा।


इसी तरह दोनों इंटरमीडियट कर गए। माँ-बाप की गरीबी और बदहाली को देखकर रामकुमार ने तय कर लिया कि अब वह और आगे नहीं पढ़ेगा। गाँव में आगे पढ़ाई की सुविधा थी भी नहीं। श्रीनिवास को अपने पिता का फार्म हाउस संभालना था, इसलिए उसे अब आगे पढ़ने की जरूरत नहीं थी। हाँ, जरूरत थी एक ऐसे विश्वस्त व्यक्ति की जो उसकी ज़मीनों का हिसाब-किताब देख सके क्योंकि वह उसके अपने दिमाग में घुसनेवाली चीज नहीं थी। स्वाभाविक था कि उसने रामकुमार को मन ही मन इस काम के लिए चुन लिया। रामकुमार भी राजी थी। वह तो चाहता ही था कि कुछ कमाकर माँ-बाप का सहारा बने तथा समय-समय पर इलाज और उसकी पढ़ाई के खर्चे के वास्ते लिए गए कर्ज के बोझ से उन्हें धीरे-धीरे मुक्त करे। यह प्रस्ताव जब उसने माँ-बाप के सामने रखा तो वे यह सोचकर राज़ी हो गए कि गरीब का बेटा और ज्यादा पढ़ लिख कर भी क्या कर लेगा। लेकिन जब इस बात का पता रामकुमार के गणित के अध्यापक डॉ. के. रामब्रह्मम को चला तो वे तड़प उठे। फौरन बालू की कोठरी में आ पहुँचे। घंटों ऊँच नीच समझाते रहे। रामकुमार से उन्होंने कहा - क्यों अपने आपको शोषण की चक्की में पिसने के लिए डाल रहे हो ? ये पैसेवाले किसीके यार नहीं होते। काम के यार हैं ये सब। वह महामूर्ख धनपशु तेरा मालिक बनेगा। तू उसका हिसाब किताब रखेगा। अब तक जैसे तेरे माँ-बाप की देह को चूसा है, परिश्रम को चूसा है इन पैसेवालों ने ; आगे तेरी प्रतिभा को, तेरी बुद्धि को इसी तरह चूस जाएँगे ये। तुझे इस जाल में नहीं फँसना चाहिए। तू एमसेट लिख, मैं कराऊँगा तैयारी। और देख फिर कैसे तेरे माँ-बाप की इस कोठरी की किस्मत पलटती है। माँ-बाप का कर्जा उतारने का यही सही रास्ता है तेरे सामने।


बात लग गई रामकुमार को। मंगा की आँखों में तो दिये जल उठे। बालू के घुटने फिर से जवान हो आए। चिन्नी खुद को परी समझ रही थी। और वह दिन तो उत्सव का दिन था जब इस गरीब परिवार का बेटा जीवन ज्योति इंजीनियरिंग इंस्टीट्यूट में बी.ई. इलेक्ट्रॉनिक्स में दाखिला पा गया। माँ घर-घर सुना आई - अब हमारे दिन फिरेंगे ; मैसम्मा माई की दया से मेरा बेटा इंजीनियर बननेवाला है।


एडमिशन मिल गया। इतना अच्छा रैंक आया था कि छात्रवृत्ति भी मिलने लगी। पर हैदराबाद जैसे शहर में रहकर इंजीनियरिंग की पढ़ाई के खर्च असल में कल्पनातीत थे। अब पैबंद लगे कपड़ों, टूटी चप्पलों और तला घिसे जूतों से काम नहीं चल सकता था। उधर चिन्नी भी बड़ी हो रही थी। घर के खर्च बढ़ रहे थे। कल बेटा बड़ा आदमी बनेगा और सारे कर्जे उतार देगा - सुनकर राशन वाले सेठ ने बालू को कर्जा तो दिया लेकिन ब्याज की दर इतनी भारी लगा दी कि अकेला ब्याज चुकाना भी संभव न रहा। रही सही कसर विश्वव्यापी आर्थिक मंदी के असर ने पूरी कर दी। खाने, पीने, ओढ़ने, पहनने की हर चीज के दाम आसमान छूने लगे। पर जरूरी चीजों के बिना कोई कैसे जी सकता है ? बेटे के जूते कपड़े की व्यवस्था के लिए बाप फिर कर्जा माँगने गया और अपमानित होकर लौटा। रोती माँ, हताश पिता और बुझी-बुझी बहन को देखकर रामकुमार का कलेजा फटने को आ गया। यह सब मेरे ही कारण हो रहा है। न मैं इंजीनियरिंग पढ़़ने जाता, न खर्चा बढ़ता, न कर्जा चढ़ता। हताश रामकुमार ने हॉस्टल के कमरे में बिजली के नंगे तार पकड़कर आत्महत्या करनी चाही। पर क्यों ऐसा होता है कि जो जीना न चाहे, मौत भी उसे नहीं मारती ? वह बच गया था !
आज यह उसका दूसरा प्रयास है। आज मुझे ब्रह्मा भी बचा नहीं सकेगा, यह सोचा था उसने ; पर बिजली चली गई।


बिजली चली गई थी। पर रामकुमार के मस्तिष्क में जाने क्या-क्या कौंधता रहा। एक पल को उसे लगा : वह नहीं है। मर गया रामकुमार। उसका शरीर बिजली के तेज झटके से तीन बार जोर जोर से छटपटाया। इतने जोर से एड़ियाँ फर्श पर पटकीं उसने, लगा कि धरती फट जाएगी। पर कुछ नहीं हुआ। होंठ काँपे, छाती में कुछ जोर से धड़ धड़ सी हुई। लगा जैसे भीतर ही भीतर सारा खून जलकर सिकुड गया हो। आँखें उलट गईं, होठों पर फेन आ गया। और फिर सब कुछ शांत। रामकुमार अब अपने शरीर के बाहर था। बहुत अच्छा लगा उसे शरीर से मुक्त होकर। वह पल भर में उड़ गया। हैदराबाद छूट गया। रामकुमार अपने गाँव में है। पर यह क्या! उससे पहले उसकी मौत की खबर उसके घर पहुँच गई। वाह रे, इंटरनेट युग! तू तो आत्मा से भी तेज चलता है। बहन दीवार से सिर पीट रही है। माँ पागल हो गई है और हँसते हुए चीख रही है - मेरा राम इंजीनियर बन गया। पिता बेटे के अंतिम कर्म के लिए कर्जा लाने की तैयारी कर रहा है! सिहर उठा रामकुमार। अरे, आत्मा भी सिहरती है ? जिस कर्ज से अपने पिता को मुक्त करने के लिए मैं मरा, वह कर्ज अब भी नहीं मरा रे! यह कर्ज अजर है। अमर है। वायु इसे सुखा नहीं सकती। पानी इसे गला नहीं सकता। यह कटता नहीं, बस जुड़ता है। यह घटता नहीं, बस बढ़ता है। नहीं ; मेरा मरना अकारथ जा रहा है। सही कहा था गणित अध्यापक डॉ. रामब्रह्मम ने : माँ-बाप को कर्जे से मुक्त करना है तो तुम्हें किसी भी कीमत पर उच्च शिक्षा प्राप्त करके अच्छे ओहदे पर पहुँचना होगा। हाय रे! मैंने यह क्या कर दिया। एक अवसर मिला था। वह भी गँवा दिया। अय्या! मुझे माफ करना।


और ; बिजली आ गई। रामकुमार ने एक झटके से अपने आपको अपने बनाए तारों के जाल से मुक्त कर लिया।