गुरुवार, 28 जनवरी 2010

मूंगफली के दाने




हम
विदेशों में भेजते हैं
मूंगफली के दाने.

अमरीका के बुद्धिजीवी
शराब के साथ पसंद करते हैं
हमारे मूंगफली के दाने .
उन्हें एकदम नापसंद है
टूटा हुआ होना
किसी भी दाने का कोई भी कोना.

इसलिए इस महान देश की
महान परम्परा का निर्वाह करते हुए
उन्हें छीलती हैं वे औरतें
जिन्हें कहा है कवियों ने -
देवी ,माँ, सहचरी , प्राण !

वे छीलती हैं मूंगफली
अपने होंठों से ,
और छिल जाते हैं उनके होंठ
इस तरह कि-
जुड़ नहीं पाते
एक प्याली चाय पीने की खातिर भी कभी !

काश ,
मेरी कविताएँ लगा सकतीं
उनके छिले होंठों पर
थोड़ा सा मरहम !!



-पूर्णिमा  शर्मा    

लड़के



सपनों को सहेजते हैं
अपनी आंखों में
अपनी उम्र का हिसाब रखते हुए लड़के .
खिलखिलाती हैं जब लड़कियाँ,
अपनी मुस्कान को दबाते हैं लड़के.
आईने के सामने घंटों
बतियाती हैं जब बहनें,
कभी रीझकर तो कभी खीझकर
मुक्का तानते हैं लड़के .

और जब किसी दिन
तिरछी चितवन से
देख लेती है कोई लड़की ,
अचानक कवि हो उठते हैं लड़के !
(शायद इसीलिए दुनिया में इतने सारे कवि हैं !)

-पूर्णिमा  शर्मा  

लड़कियाँ कविताएँ हैं



लड़कियाँ कविताएँ हैं ;
चाहे - अचाहे आ जाती हैं
मन के आँगन में .
कभी हँसाती और गुदगुदाती हैं .
कभी रूठ जाती हैं ,
कभी रुलाती हैं .
कविताओं को कुछ भी छिपाना नहीं आता .
लड़कियाँ भी कहाँ कुछ छिपाना जानती हैं ?
कविताएँ सहज हैं ,सच्ची हैं, सुंदर हैं .
लड़कियाँ भी कितनी सहज हैं, सच्ची हैं, सुंदर हैं !
दुनिया जाने कैसी होती
अगर लड़कियाँ न होतीं ;
अगर कविताएँ न होतीं !!


-पूर्णिमा  शर्मा  

वक्त की बिल्ली



वक्त बिल्ली की तरह
दबे पाँव आया मेरी बच्ची के पास.

मैंने रसोई से देखा-
बिल्ली म्याऊँ-म्याऊँ करने लगी.
बच्ची ने पकड़ लिए दोनों कान
तो आँख मिचमिचाकर रह गई
वक्त की बिल्ली.
बच्ची ने पकड़ी उसकी पूँछ
बिल्ली को मौका मिल गया,
ज़ोर से काट लिया दूसरी बांह में.

बिलबिलाकर रह गई बच्ची.
दौड़कर आई मैं रसोई से .
वक्त की पूँछ निकल चुकी थी!


-पूर्णिमा  शर्मा  

मन


मन
अगर फट जाता है कभी,
लाख कोशिश करो
जोड़े नही जुड़ता.
बस
तैरती रहती हैं पुरानी यादें
निचले तल से
ऊपरी सतह तक .

दूध जैसा मन भी
एक बार फटा-
तो बस फट गया- सदा के लिए.


-पूर्णिमा  शर्मा  

बेटियाँ




जब खुश होती हैं बेटियाँ
तो आँगन चहकने लगता है .
रंगोली सजती है दरवाजे पर .
सारा का सारा आसमान
भर उठता है बन्दनवारों से .
तुलसी रोज़ होती है एक हाथ लम्बी .
नीम में पड़ते हैं झूले .
आम के बौर में छिप कर
कूकती है कोयल .
और चौक में बिखर - बिखर जाते हैं
चम्पा - चमेली के फूल .
जब खुश होती हैं बेटियाँ
तो खुश होता है
सारा घर - संसार .
पर जब दुखी होती हैं बेटियाँ
तो कितनी अकेली होती हैं वे !
घुट - घुट कर
सुबक - सुबक कर रोती हैं वे !
उनके दुःख कोई नहीं जानता -
न घर , न संसार !!


-पूर्णिमा  शर्मा  

रास्ते


चीख पुकार मची है हर ओर.
भागी जा रही है दुनिया.
धक्का मुक्की में औंधे मुँह
गिर पड़ी सब्जी वाली बुढ़िया.

पुजारी जी का जनेऊ
फँस गया
पादरी जी के क्रॉस में.
मौलवी साहब का पाजामा
चिर गया
ग्रंथी जी की किरपान से.
किसी को परवाह नहीं-
न धर्म की न शर्म की.

बस दौडे जा रहे हैं सब-
चाहे जिस दिशा में,
चाहे जिस रास्ते पर.

हर रास्ता
ले जाता है बाज़ार तक.
वह रास्ता कहाँ है
जो ले जाए प्यार तक?


-पूर्णिमा  शर्मा  

प्रार्थना




हे प्रभो !
बड़ा दयालु है तू ,
तूने युद्धों की दुनिया में
बांसुरी बनाई ,
तूने काँटों की दुनिया में
कलियाँ खिलाईं
तूने नफ़रतों के अंधेरों में
प्यार के दीपक जलाए ,
तूने मर्दों की दुनिया में
औरतें बनाईं !
हे प्रभु !
बस इतना वरदान दे -
ये वंशियाँ -
कोलाहल के बीच
संगीत को जिंदा रख सकें ,
ये कलियाँ -
विद्रूप के बीच
सौन्दर्य को जिंदा रख सकें ,
ये दीपक -
मौत के बीच
जीने की ललक को जिंदा रख सकें .
और ये औरतें -
इस दुनिया को
दुनिया बनाए रख सकें !!
हे प्रभु !
बड़ा दयालु है तू
कि तूने हमें औरत बनाया
चूंकि
हमीं से ज़िंदा रहेगी
यह दुनिया !!!


-पूर्णिमा  शर्मा