शनिवार, 10 दिसंबर 2011

समकालीन कविता

आधुनिक हिंदी कविता के इतिहास में १९७० के बाद की कविता को समकालीन कविता के नाम से जाना जाता है. आरम्भ में यह एक विशेष काव्यान्दोलन का सूचक नाम था जिसमें ‘बिकमिंग’ या अपने काल विशेष में होने वाली घटनाओं के खुलासे की प्रवृति निहित थी. डॉ.विश्वम्भर नाथ उपाध्याय ने इसी आधार पर उस काल के अनेक अलग-अलग आन्दोलनों के समर्थक रचनाकारों का समवेत संकलन भी प्रकाशित किया था. समकालीनता एक ही समय में एक साथ होनेजीनेकाम करने की द्योतक है. अतः एक काव्य प्रवृति के रूप में समकालीनता बोध कों स्वीकार करना चाहें तो यह कह सकते हैं कि समकालीन कविता ऐसी कविता है जो अपने समय के साथ चलती हैहोती हैजीती है. इसे आधुनिकता बोध का अगला चरण भी कहा जा सकता है. अंतर केवल इतना है कि आधुनिकता बोध के केंद्र में आधुनिक मनुष्य है और समकालीनता बोध के केंद्र में समकाल. इससे यह समझ में आ जाता है कि  समकालीन कविता अपने समय की विसंगतिविडम्बना और तनाव से जुड़े सवालों से टकराती एक विशेष रूप और गुणधर्म वाली कविता हैजिसके लिए अपने समय में सटीक होना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है. 

समकालीन कविता की आधारभूमि मुख्य रूप से युग परिवेश और उसके जीवन के साथ जुड़े हुए विवशतापूर्ण सवाल हैं. २० वी सदी के अंतिम तीन दशकों का भारतीय परिवेश समकालीन कविता की आधारभूमि और प्रेरणास्रोत है. १९७० के बाद के भारतीय परिवेश की सबसे महत्वपूर्ण और केंद्रीय घटना बंगलादेश के निर्माण और आपातकाल के लागू होने की है. इससे पहले चीन और पाकिस्तान के साथ हुए युद्धों  के समय हुए शक्ति-परिक्षण से स्वातंत्र्योत्तर भारतीय राजनीति की वास्तविकताएं सामने आ चुकी थीं. बंगलादेश के  निर्माण के बाद  के काल में एक ओर तो विश्व में भारत का सम्मान बढ़ा लेकिन दूसरी ओर आर्थिक और राजनैतिक समस्याओं की बाढ़ सी आ गयी. गरीबीमहंगाईबेरोज़गारी  और भ्रष्टाचार से एक तरफ सामान्य जनता को दूसरी तरफ बुद्धिजीवी वर्ग को बड़ा सदमा लगा. आज़ादी के २५ साल की प्रगति कहाँ गयी. यह बड़ा सवाल भारतीयों के सामने उठ खड़ा हो गया. प्रकारांतर से आज भी यही सवाल बार बार हमारे सामने आता है कि ६५ साल की आज़ादी के बाद भी  भारतीय आम आदमी भ्रष्टाचार और असमानता को झेलने के लिए अभिशप्त क्यों हैं १९७० के बाद से ही प्रत्येक जागरूक नागरिक की चेतना को झिंझोड़ने वाले ऐसे ही सवाल समकालीन कविता के मूलभूत सरोकारों का निर्धारण करते हैं. चाहे  देश में आपातकाल लागू होने की घटना रही हो  या  सांप्रदायिक विद्वेषदंगे फसाद और आतंकवाद का लगातार फैलाव रहा हो. चाहे किसानों की आत्महत्याएं रही होंया उदारीकरण के नाम पर लगातार देश में विदेशी कम्पनियों के हस्तक्षेप का बढ़ना रहा हो बड़ी राजनैतिक पार्टियों का टूटनाक्षेत्रीय राजनीति का राष्ट्रीय राजनीति पर हावी होनालोकतांत्रिक मूल्यों पर स्वार्थी राजनीति का विजयी होनाचुनाव सुधार के बावजूद चुनावों का लोकतंत्र के नाम पर मखौल होनाराजनीति और अपराध का गठबंधन होनामीडिया और सत्ता का माफियाकरण होनापरमाणु शक्ति होने के बावजूद भारत का एक भयभीत राष्ट्र बने रहना आदि घटनाओं ने समकालीन कविता के युगधर्म का निर्धारण किया है. समकालीन कविता ने अमर होने की चिंता न करते हुएअपने समकाल की इन सारी घटनाओं को दर्ज किया है और इन पर अपनी टिप्पणी भी दी है. यही समकालीनता बोध की पहचान है. 

भारतीय समाज के युवा वर्ग पर इन तमाम घटनाओं का गहरा प्रभाव पड़ा. इस भयावह यथार्थ के बोध से युवा वर्ग में व्यापक असंतोष निराशाआक्रोशजन्य विद्रोह आदि प्रवृत्तियां  जागीं. सामान्य जनता तो परिवेश की इन यातनाओं को भोगती रही परन्तु संवेदनशील  बुद्धिजीवी वर्ग ने इनसे बचने तथा बचाने के लिए आवश्यक जागृति पैदा करने का बीड़ा उठाया. अपने असंतोष को व्यक्त करने का उनका रास्ता अत्यंत कठिन रहा. मोहभंग से उत्पन्न परिणामों का विश्लेषण करके उसके लिए ज़िम्मेदार कारण और व्यक्तियों की तलाश करके उनकी पुनरावृत्ति से राष्ट्र को बचाने की कोशिशें इसी बुद्धिजीवी वर्ग या कवि वर्ग ने की है. इन रचनाधर्मियों ने कुछ निष्कर्षों पर पहुंचकर समाजविरोधी दुरभिसंधियों के विरोध में जन संगठन और जन समर्थन प्राप्त करने की कोशिश की.विद्वानों ने इन निष्कर्षों को निम्नवत सूचीबद्ध किया है :  

पहला निष्कर्ष है कि आज़ादी के बाद के समय में मोहभंग का केंद्रीय कारण  भारतीय राजनीति में मूल्यहीन स्वार्थी राजनेताओं का प्रवेश है. जनसेवा के नाम पर इस वर्ग ने भारतीय जनता को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से भयानक तौर पर नुकसान पहुंचाया है. स्वार्थसिद्धि में लिप्त सत्तालोलुप  नेताओं  की असलियत का पर्दाफ़ाश करना चाहिए. राजनैतिक क्षेत्र से प्रदूषण  को दूर करना है तो जन चेतना पैदा करके जन समर्थन प्राप्त करना अत्यंत आवश्यक है.

दूसरा निष्कर्ष है कि राजनेताओं की छत्रछाया में सरकारी अधिकारी और कर्मचारी वर्ग में व्याप्त भ्रष्टाचार को रोकना अत्यंत आवश्यक है. 

तीसरा निष्कर्ष है कि पिछड़े हुए लोगों और कमज़ोर वर्गों के शोषण और भ्रष्टाचार के बोलबाले  से भारत में आर्थिक असंतुलन पैदा हो गया है. धनी और धनी  तथा गरीब और गरीब होता जा रहा है. इस आर्थिक विषमता के प्रति जागरूक रहना आवश्यक है.

चौथा निष्कर्ष है कि कई पीढ़ियों से लगातार सब प्रकार के  शोषण का शिकार रहे हाशियाकृत समाजों जैसेदलितनारी और अल्पसंख्यकों के मानवाधिकारोंसामाजिक न्यायपहचान तथा अस्तित्व के लिए संघर्ष करना आवश्यक है.

पांचवां निष्कर्ष है कि धनबल से संचालितआत्मकेंद्रितसुविधाभोगी व्यक्ति को परिवार के महत्व तथा उसके टूटने से उत्पन्न भयंकर परिणामों से अवगत कराकर 'घरकी पुनः खोज करना आवश्यक है. 

छठा निष्कर्ष है कि युद्धों और विज्ञान के नए अविष्कारों के प्रदूषण  से  मानवता को बचाने के लिए प्रकृति और उसके तत्वों को काव्यवस्तु के रूप में ग्रहण करना आवश्यक है.

इन्ही कुछ निष्कर्षों के आधार पर समकालीन प्रश्नों  के समाधान ढूँढने तथा आवश्यक जागरूकता उत्पन्न करने की दिशा में बीसवी सदी के पिछले तीन दशकों के कवियों ने कविताएं लिखी हैं. नई सदी के कवि भी इन्हीं प्रश्नों से और व्यापक स्तर पर जूझने कों अभिशप्त हैं. उनकी इस समकालीनता के औचित्य पर उंगली नहीं उठाई जा सकती. रघुवीर सहायकेदारनाथ सिंहगगन गिलअनामिकाज्ञानेंद्रपतिराजेश जोशी, उदय प्रकाशविवेक शुक्लमंगलेश डबरालअरुण कमलकात्यायनीराजीव सबरवाल आदि समकालीन कवियों में इन मुद्दों के समाधान ढूँढने की बड़ी छटपटाहट देखी जा सकती है. इसमें कोई संदेह नहीं कि ये कवि केवल समकालीन कविता के प्रतिनिधि कवि ही नहीं बल्कि समकालीन कविता के प्रति पूर्णतया प्रतिबद्ध कवि भी हैं. 

यहाँ हम आपका परिचय कुछ महत्वपूर्ण समकालीन कवियों और कवयित्रियों से कराना ज़रूरी समझते हैं. 

सबसे पहले रघुवीर सहाय को लें. यों तो ये पहली बार १९५१ में अज्ञेय द्वारा संपादित 'दूसरा सप्तकके माध्यम से सामने आये. परन्तु इनकी पहचान सीढ़ियों पर धूप मेंआत्महत्या  के विरुद्धहँसो हँसो जल्दी हंसोंलोग भूल गए हैं  तथा कुछ पते कुछ चिट्ठियाँ जैसे संग्रहों द्वारा पत्रकारिता को कविता में संभव करने वाले कवि के रूप में स्थापित हुई. इनकी कविता आधुनिक मनुष्य और उसके परिवेश के बीच अलगाव को व्यक्त करती है. इसके अलावा इन्होंने नई कविता के लघु मानव को आम आदमी का स्वरूप प्रदान किया. यह आम आदमी पीड़ा सहता हैपिटता हैऔर मर जाता हैलेकिन विरोध नहीं कर पाता. इस संदर्भ में उनकी ‘रामदास’ शीर्षक  कविता का रामदास आम आदमी की करुणापूर्ण विवशता का प्रतीक माना जाता है. रघुवीर सहाय ने  ‘दुनिया’  शीर्षक कविता में लिखा है- 

न कोई हँसता है न कोई रोता है
न कोई प्यार करता है न कोई नफरत 
लोग या तो दया करते हैं या घमंड
दुनिया एक फफंदियाई हुई से चीज़ हो गयी है. 

इसी प्रकार ‘बाप का बेटे से बोलना’ शीर्षक कविता में रघुवीर सहाय कहते हैं - 

अब बड़े होने पर जानता हूँ
बच्चे बड़े होते जाते हैं
लेकिन सुरक्षित नहीं होते.
अपने बच्चों की पीड़ा ही अनुभूति है पीड़ा की
अपनी खुद की पीड़ा में बहुत बनावट है
और दूसरे की पीडाएं सच्ची नहीं. 

दूसरे समकालीन कवि के रूप में हम आपको केदारनाथ सिंह के बारे में बताएँगे. ये तीसरा सप्तक के माध्यम से सामने आये और अभी बिलकुल अभीज़मीन पक रही हैयहाँ से देखो, अकाल में सारस  तथा उत्त्तर कबीर जैसी काव्य कृतियों के लिए जाने जाते हैं. केदारनाथ सिंह की कविताएं आम आदमी के विभिन्न पहलुओं के अलावा रोज़मर्रा की जिंदगी की मामूली चीज़ोंमानवीय संबंधोंप्रेमप्रकृतिसंघर्षसंकल्प और संभावना की कविताएं हैं. उनका कहना है कि "मैं भाषा को लोगों कि जुबान पर से लाने की कोशिश करता हूँ." इसीलिए उनके यहाँ आलूनमकरोटीबैलथानागडरिया और टमाटर बेचने वाली बुढिया तक का प्रवेश है. अपनी एक प्रसिद्ध कविता 'रोटीमें केदारनाथ सिंह भूख कों मनुष्य की पहली ज़रूरत बताते हुए कहते हैं -  

उसके बारे में कविता करना 
हिमाकत की बात होगी
और वह मैं नहीं करूँगा

मैं सिर्फ आपको आमंत्रित करूँगा 
कि आप आयें और मेरे साथ सीधे 
उस आग तक चलें
उस चूल्हे तक - जहाँ पक रही है
एक अद्भुत ताप और गरिमा के साथ 
समूची आग को गंध में बदलती हुई 
दुनिया की सबसे आश्चर्यजनक चीज़
वह पक रही है.

इसी प्रकार 'टमाटर बेचने वाली बुढिया' शीर्षक कविता में केदारनाथ सिंह ने टमाटरबुढ़िया  और माँ को संवेदना के धरातल पर जोड़ने का प्रयास किया है.-

एक ग्राहक आता है 
और टोकरी हिलने लगती है 

मुझे लगता है बुढिया टोकरी से
अपनी जगह बदल रही है 
मैं कांपने लगता हूँ यह देखकर
कि टमाटर इस काम में 
बुढ़िया की मदद कर रहे हैं 

अब बुढ़िया के हाथ 
टमाटरों से खेल रहे हैं 
वह एक भूरे टमाटर को धीरे से उठाती है 
और हरी पत्तियों के नीचे 
छिपा देती है माँ की तरह 

मुझे बुढ़िया की यह हरकत 
बेहद दिलचस्प लगती है 
यह माँ का एक बिलकुल नया चेहरा है
जो हरी पत्तियों के नीचे से 
झाँक रहा है. 

तीसरे समकालीन कवि के रूप में हम आपको अरुण कमल से परिचित कराना चाहेंगे जिन्हें खासतौर पर अपनी केवल धार, सबूत तथा नए इलाके में जैसे काव्य संग्रहों के लिए जाना जाता है. इनकी कविताओं में जीवन के प्रति गहरा लगाव और जन के प्रति प्रतिबद्धता दिखाई देती है. इन्होंने अपने आसपास की दुनिया को बहुत प्रेम और विश्वास से कविता में उतारा है और यह घोषित किया है कि - सारा लोहा उन लोगों काअपनी केवल धार. 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' शीर्षक कविता में अरुण कमल ने बिजली के बिना घोर अंधकार में जीवन यापन करने वाले उत्तर प्रदेश के गाँवों की व्यथा को इस प्रकार प्रकट किया है -

एक अँधेरा जो सब अँधेरे से 
बड़ा और घना है
जहाँ रात ही रात है हजारों सालों से 
बीहड़ जंगलों 
और गहरे कुओं के अँधेरे से भी 
बड़ा और घना है
छोटे दिमाग का अँधेरा .
आओ
पहले उस अँधेरे को दूर करो
आओ चलो अंधकार से बाहर 
प्रकाश की ओर 
सूर्य से भी तेज
ज्ञान का प्रकाश,
चलो प्रकाश की ओर
ज्ञान की ओर 
चलो. 
  
यहाँ चौथे समकालीन कवि के रूप में मंगलेश डबराल का उल्लेख किया जा सकता है. 'पहाड़ पर लालटेन', 'घर का रास्ताऔर 'हम जो देखते हैंमंगलेश के चर्चित काव्य संग्रह रहे हैं. उनकी कविताओं का मुख्य सरोकार लोकतंत्र से सम्बंधित है. इसीलिए वे नेता को ऐसे अत्याचारी के रूप में देखते हैं जो इन दिनों खूब लोकप्रिय है. मंगलेश मध्य वर्ग को दया की दृष्टि से देखते हैं. क्योंकि उसके कंधे पर उन्हें दुःख और आत्मा पर फफूंद के अलावा कुछ और दिखाई नहीं देता. इसके अलावा उन्होंने पहाड़ी जीवन और आत्मीय संबंधों पर प्रभावी कविताएं  रची हैं. उदाहरण के लिए 'माँ की तस्वीरशीर्षक कविता में मंगलेश ने तस्वीर और नक्काशीदार कुर्सी के माध्यम से स्त्री जीवन के यथार्थ को इस प्रकार व्यक्त किया है - 

मैं अक्सर एक ज़माने से चली आ रही
पुरानी नक्काशीदार कुर्सी पर बैठा रहा 
जिस पर बैठ कर तस्वीरें खिंचवाई जाती हैं .
माँ के चेहरे पर मुझे दिखाई देती है 
एक जंगल की तस्वीर
लकड़ीघास और  पानी की तस्वीर,
खोई हुई एक चीज़ की तस्वीर.

मंगलेश ने अपनी कविता 'चुपचाप में समकालीन मनुष्य के अकेलेपन को व्यक्त करते हुए कहा है - 


फटे हुए दिन को ख़बरों से ढककर 
मैं एक भीड़ की ओर फेंकता हूँ 
और अपने अकेले घर 
और अकेले शब्दों के बीच 
आदत की तरह लौट आता हूँ
चुपचाप और भी चुपचाप.
आज के समय की विद्रूपता को व्यंग्य के माध्यम से भी मंगलेश ने ज़ोरदार अभिव्यक्ति प्रदान की है. 'अत्याचारी के प्रमाणमें वे कहते हैं 

अत्याचारी के निर्दोष होने के कई प्रमाण हैं
उसके नाखून या दाँत लंबे नहीं हैं 
आँखें लाल नहीं रहती 
बल्कि वह मुस्कुराता  रहता है
अक्सर अपने घर आमंत्रित करता है 
और हमारी ओर अपना कोमल हाथ बढाता है.. .....

अत्याचारी इन दिनों खूब लोकप्रिय है 
कई मरे हुए लोग भी उसके घर आते जाते हैं. 


समकालीन कविता की यह चर्चा तब तक अधूरी मानी जायेगी जब तक आधी दुनिया अर्थात नारी लेखन का उल्लेख न किया जाय. खास तौर से १९८० के बाद समकालीन  हिंदी कविता में नारी कलम का हस्तक्षेप अत्यंत मुखर रूप में सामने आया. इस प्रकार के लेखन ने समकालीन कविता में नारी-विमर्श कों स्थापित किया. उदाहरण के लिए  गगन गिल की कविता 'आधे रास्ते तुम चलते हो को देखा जा सकता है –

आधे रास्ते तुम चलते हो
उसके संग
फिर लौटा ले जाता है
ईश्वर बेचैनी
आधे सिर में फिरते हैं
इच्छा संताप
आधी में करती है फिर
निद्रा आघात 
आधी काया रहती है 
चिमटी संग तुम्हारे
लौट आता है आधा शव
घर अपने. 

इसी क्रम में अनामिका की कविता 'भरोसा' भी द्रष्टव्य है जिसमें उन्होंने परस्पर विश्वास के टूटने और जुड़ने की बात एकदम अलग अंदाज़ में कही है - 

टुइयाँ सी चीज़ है भरोसा
हमने उसे कहाँ कहाँ नहीं ढूँढा 
दोस्तों की आँखोंभाई की पाकेट 
दादी के बटुएबच्चो के गुल्लक से भी
वह जाने कब और कैसे
झड गया था.

प्रेमियों ने उसका करा रखा था 
फिक्स्ड डिपोजिट सा 
सुबह सुबह रोज़ फोन करते थे 
एक दूसरे को
कि कैसे क्या करेंकहाँ कहाँ कतरें ज़रूरतें 
जो वह अक्षुण्ण रहे

पर टूटना ही था उसे - 
सो वह टूटा -
सपनों के अबरक की तरह
अचानक खच से 

और फिर चमका 
तो कई बरस बाद एक दिन
अनजान आँखों में चमका 
जैसा कि घास में चमकता है कोई 
अग्निगर्भ कीड़ा. 

दूसरी ओर  कात्यायनी की कविता 'हॉकी खेलती लडकियां के केंद्र में औरत के सपने हैं - 

सो जायेंगी लडकियां 
और 
सपने में 
दौड़ती हुई 
बाल के पीछे 
स्टिक को साधे हुए हाथों में 
पृथ्वी के 
छोर तक पहुँच जायेंगी 
और
'गोल-गोलचिल्लाती हुई  
एक दूसरे को चूमती हुई 
लिपटकर 
धरती पर 
गिर जायेंगी 

इन तीन कवयित्रियों की रचनाओं को देखने से आपको पता चलेगा कि समकालीन स्त्री  कविता में जहाँ एक ओर औरत के देह केंद्रित अनुभवों को प्रकट किया गया हैंवहीँ उसकी मुक्ति चेतना को घरेलू वातावरण के सहारे शब्द प्रदान किये गए हैं. यह भी विचारणीय है कि हिंदी की स्त्री कविता को ‘घर’ बहुत प्रिय है – ‘बाहर’ के आकाश के साथ-साथ. 

इस प्रकार आपने देखा कि समकालीन हिंदी कविता पिछले लगभग चालीस साल से निरंतर बदलते हुए समकालीन परिवेश के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रही है और अपनी समकालीनता को प्रमाणित कर रही हैं. 
-पूर्णिमा शर्मा