शनिवार, 7 अप्रैल 2012

[मेरी पुस्तक] ''उपन्यास, भाषा और स्वातंत्र्य चेतना''


''उपन्यास, भाषा और स्वातंत्र्य चेतना'' 

पुस्तक    -    उपन्यास, भाषा और स्वातंत्र्य चेतना (2011)
प्रकाशक -     लेखनी, नई दिल्ली - 110 059 (भारत )
मूल्य      -     650 रुपए
आई एस बी एन -  978-81-920827-3-8
कुल पृष्ठ  -    284
आकार   -     डिमाई 
आवरण  -    क्लॉथ (हार्ड बाउंड)
केटेगरी   -    समीक्षा 

पुस्तक के बारे में 

स्वातंत्र्य चेतना किसी व्यक्ति, समूह, समुदाय, समाज अथवा राष्ट्र की प्रतिबंधहीन आत्मनिर्णय के अधिकार के प्रति सजगता और जागरूकता का नाम है, जिसमें विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना के संबंध में स्वेच्छापूर्वक चयन का अधिकार तो शामिल है ही, अपने ऊपर अपने से इतर किसी भी अन्य शक्ति या सत्ता के नियंत्रण अर्थात पराधीनता से मुक्त होने की सजग चेष्टा और विवेक भी शामिल है। स्वातंत्र्य चेतना ही व्यक्तियों, समाजों और राष्ट्रों को पराधीनता से मुक्ति के लिए आंदोलन, संघर्ष और संग्राम की प्रेरणा देती है। आधुनिक भारतीय संदर्भ में यह चेतना19वीं-20वीं शताब्दी के सांस्कृतिक नवजागरण, समाज सुधार और स्वाधीनता संग्राम के रूप में पुंजीभूत हुई जिसे अन्य साहित्यिक विधाओं के साथ-साथ हिंदी उपन्यास ने भी आत्मसात और अभिव्यक्त किया।

डॉ.पूर्णिमा शर्मा ने अपने ग्रंथ ''उपन्यास, भाषा और स्वातंत्र्य चेतना'' में पहली बार हिंदी उपन्यासों का पाठ-विश्लेषण इसी स्वातंत्र्य चेतना की अभिव्यक्ति की दृष्टि से किया है। इस ग्रंथ में लेखिका ने उपन्यास-भाषा के विश्लेषण के पांच आधार निर्धारित किए हैं - लेखकीय टिप्पणी, संवाद, घटना, भाषण और धारणाओं का  विश्लेषण  तथा इन आधारों पर हिंदी के प्रमुख उपन्यासों की स्वातंत्र्य चेतना और उसकी अभिव्यक्ति की विशद पड़ताल की है।

यह ग्रंथ इस तथ्य की स्थापना करनेवाला अपनी तरह का प्रथम मौलिक प्रयास है कि हिंदी के कथाकारों ने प्रयोजनमूलक भाषा अथवा प्रयुक्तियों के गठन में भी अप्रतिम योगदान दिया है। व्यावहारिक हिंदी के निर्माण में साहित्यिक हिंदी की इस भूमिका पर भाषा चिंतकों को अभी विचार करना है।

साहित्य-भाषा, शैलीविज्ञान और पाठ विश्लेषण के अध्येता इस ग्रंथ की सामग्री को अत्यंत रोचक और उपादेय पाएँगे।
भूमिका

साम्राज्यवाद के राजनैतिक चेहरे और पूँजीवाद के जन-विरोधी चरित्र को सामने लाने वाले प्रेमचंद हिंदी के पहले बड़े लेखक थे। अपने सही रास्ते की तलाश के संकट और विचारधाराओं की चकाचौंध से वे बहुत जल्दी बाहर आ गए थे। इस जल्दी में भी उन्होंने काफ़ी लंबी यात्रा तय कर ली थी और इस कोने से उस कोने तक लगे दिखावटी लैंप पोस्टों को छूते हुए, सबकी सच्चाई उधेड़ कर अपना वह रास्ता बना लिया था, जिसे आज तक हिंदी कथा-साहित्य का सबसे सार्थक रास्ता माना जा रहा है। 

प्रेमचंद के 'रंगभूमि' उपन्यास पर और चाहे जो और जितने आरोप लगें, किंतु इससे किसी को इनकार नहीं होगा कि इस रचना ने बहुत बड़े कैनवस पर ब्रिटिश साम्राज्यवाद और देशी राजाओं के गठजोड़, स्वाधीनता के लिए किए जाने वाले संघर्ष के तत्कालीन सभी रूपों तथा पूँजीवाद के समाजार्थिक प्रभावों को चित्रित किया। इसके पूर्व वे बेमेल विवाह, दहेज प्रथा, स्त्रियों के लिए शिक्षित होने की आवश्यकता, स्त्री के देह-व्यापार के रास्ते पर चलने के मूल में विद्‍यमान समाजार्थिक कारण, किसानों में शोषण के विरुद्‍ध खडे़ होने के लिए करवट लेती क्रांतिकारी चेतना, सहज-स्वाभाविक संबंधों में रोड़ा बनने वाले धर्म को चुनौती देती युवा-पीढ़ी आदि की झलक अपने उपन्यासों में दर्शा चुके थे। गांधीवादी विचारधारा के प्रति एक समय की उनकी एकांतिक प्रतिबद्‍धता और फिर यथार्थवादी दृष्टिबोध को आत्मसात करके अपने समय की विचारधाराओं की शव-परीक्षा की गहरी कोशिश ने भी प्रेमचंद का एक दूसरा रूप सबके सामने रखा। आधुनिक भारत ने नवजागरण के प्रभाव से व्युत्पन्न विचार-मंथन से जो सीखा था, यह उसी का यथार्थवादी विस्तार था और प्रेमचंद हिंदी कथा-साहित्य में स्वाधीनता की चेतना के सबसे बडे़ व्याख्याता थे। उनके उपन्यासों में उस काल में भारतीय जनता के हृदय में उभरी स्वातंत्र्य-चेतना की व्यापक अभिव्यक्‍ति हुई। यह वही स्वातंत्र्य-चेतना थी, जिसके स्वरूप का गठन समाज, संस्कृति, राजनीति तथा आर्थिक परिस्थितियों के विश्‍लेषण से प्राप्त तत्वों के आधार पर हुआ था और जिसे एक ओर गांधी ने, तो दूसरी ओर भगत सिंह ने अपने-अपने ढंग से पोषित किया था। प्रेमचंद के बाद के अनेक कथाकारों ने इस परंपरा को आगे बढा़या,किसी ने स्वतंत्र रूप से इसी विषय पर उपन्यास लिख कर और किसी ने अन्य विषय को केंद्र में रखते हुए भी स्वातंत्र्य-चेतना से जुड़े प्रसंग उपस्थित करके। 

ध्यान देने की बात यह है कि स्वातंत्र्य-चेतना और स्वाधीनता के लिए किए जाने वाले संघर्ष को अपनी रचनाओं में स्थान देने वाले कथाकारों ने एक ऐसी नई कथा-भाषा का निर्माण भी किया, जो इस चेतना को संभाल सके तथा अत्यंत प्रभावशाली ढंग से उसकी अभिव्यक्‍ति कर सके। यह कोई कम जोखिम भरा काम नहीं था। कारण यह, कि स्वातंत्र्य-चेतना में एक ओर जहाँ सघन रोमानियत की भूमिका होती है, वहीं असंतोष एवं आक्रोश उसके मूल तत्वों में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। यथार्थ के सपाट रास्ते पर चलते हुए एक नवीन व्यवस्था को निर्मित करने की व्याकुल रचनाशीलता उसमें बनी रहती है। कथाकार को इन सभी तत्वों और स्थितियों को आकार देने में समर्थ भाषा का गठन करना होता है। यह एक कठिन साधना है, जिसमें कथाकार को शब्दों, वाक्यों, भाषिक-चिह्नों, मुहावरों,प्रतीकों, बिंबों आदि के प्रयोग का एक सुनियोजित और सुगठित ढाँचा खडा़ करना होता है। भाषा के बीच ही उसे उन पात्रों को भी खडा़ करना होता है, जो उसके प्रत्यक्ष प्रयोक्‍ता भी हैं और उसी के बीच रह कर अपने व्यक्‍तित्व का विकास करने वाली शक्‍तियाँ भी। ऐसे पात्रों की विश्‍वसनीयता उनके द्‍वारा प्रयुक्‍त संवादों में सबसे अधिक प्रकट होती है। इसी के साथ उन प्रतिक्रियाओं में भी सामने आती है, जो इन पात्रों के व्यवहार द्‍वारा विविध संघर्षशील और संक्रमणशील दशाओं में अभिव्यक्‍त होती हैं। अंततः इन समस्त प्रतिक्रियाओं की प्रस्तुति भी भाषा के सहारे ही होती है।

स्वातंत्र्य-चेतना की भाषिक अभिव्यक्‍ति का यह इतना महत्वपूर्ण पक्ष हिंदी आलोचना में उपेक्षित है। इसका एक अर्थ यह है कि हिंदी के कथाकारों ने स्वाधीनता के संदर्भ में जो ऐतिहासिक भूमिका निभाई, उसका मूल्यांकन अब तक अधूरा ही है।

डॉ. पूर्णिमा शर्मा का इस विषय पर केंद्रित यह पूरा ग्रंथ इस संदर्भ में सचमुच एक अभाव की पूर्ति है। उन्होंने प्रेमचंद से प्रारंभ करके गिरिराज किशोर तक चुने हुए कथाकारों की उपन्यास-रचनाओं में स्वातंत्र्य-चेतना की भाषिक-अभिव्यक्‍ति का सूझबूझ के साथ विश्‍लेषण किया है और कथा-भाषा की तत्संबन्धी क्षमता की परीक्षा की है। डॉ. पूर्णिमा शर्मा के इस समालोचना-कर्म से हिंदी-समीक्षा के विकास की परंपरा में एक नवीन कड़ी जुड़ने की आशा है। 

मैं उनके उज्ज्वल भविष्य की कामना करता हूँ।
पूर्व अधिष्ठाता, मानविकी संकाय 
मणिपुर विश्‍व विद्‍यालय 
कांचीपुर, इम्फाल- ७९५ ००३ (मणिपुर)