शुक्रवार, 20 जून 2014

'परिलेख हिंदी साधक सम्मान' समारोह के अवसर पर प्रकाशित डॉ. जी. नीरजा का अंतरंग परिचय


नत नयन, प्रिय कर्मरत मन नीरजा 
-    डॉ. पूर्णिमा शर्मा

डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा 
सहज समर्पण भाव और विनम्रता से हिंदी की मौन सेवा में लगी रहने वाली डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा भाषा और साहित्य से अपेक्षाविहीन प्रेम करती हैं. उन्हें आज तक किसी ने किसी तरह की शिकायत करते नहीं सुना. असुविधाएँ हैं, तो हुआ करें. वे बस अपने कर्म में किसी निष्काम कर्मयोगी की भाँति लगी रहती हैं. ‘नत नयन, प्रिय कर्मरत मन’ – तोड़ती पत्थर! कभी कोई धन्यवाद दे दे तो तरल मुस्कान से चेहरा खिल उठता है. लेकिन ज्यादातर धन्यवाद कोई देता नहीं – लोग काम निकलवाने में तो माहिर होते हैं लेकिन अपनी ओर से आगे बढ़कर सहयोग व सहायता देने वालों को धन्यवाद देना कतई जरूरी नहीं समझते. ऐसा नहीं है कि डॉ. नीरजा लोगों के इस ‘नाशुक्रे’ स्वभाव को नहीं जानतीं लेकिन इसे क्या कहिए कि तमाम तरह के ‘थैंकलेस’ काम करने के अपने स्वभाव को बदलना ही नहीं चाहतीं. तो ऐसी हैं हमारी डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा. वे सदा हिंदी के नाम पर हर किसी का सहयोग करने को तत्पर रहती हैं और यही कारण है कि हैदराबाद के हिंदी जगत में – छात्रों, शोधार्थियों, अध्यापकों, पत्रकारों और साहित्यकारों के बीच – वे अच्छी खासी लोकप्रिय हैं. 


डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा का जन्म 11 मार्च 1975 को चेन्नै में हुआ. उनकी माताजी का नाम श्रीमती कुसुमा और पिताजी का नाम श्री गुर्रमकोंडा श्रीकांत है. माताजी सुशिक्षित गृहिणी हैं और पिताजी तेलुगु के सम्मानित पत्रकार एवं साहित्यकार. बचपन से ही नीरजा ने माँ से आत्मगोपन और पिता से गंभीरता का संस्कार पाया. उसी काल में उनके मन में कला, साहित्य, संगीत और नृत्य के प्रति प्रेम के बीज रोपे गए. आरंभिक शिक्षा-दीक्षा उन्होंने तमिल और अंग्रेजी माध्यम से प्राप्त की. घर में मातृभाषा तेलुगु का व्यवहार सीखा तथा तीन वर्ष की आयु से ही हिंदी की भी विधिवत शिक्षा प्राप्त की. मैट्रिक के बाद उन्होंने चिकित्सा संबंधी क्षेत्र में जाने का सपना देखा और विज्ञान विषयों की विधिवत पढ़ाई की. इसी बीच उन्हें अपने पिता और परिवार सहित चेन्नै से हैदराबाद आना पड़ा. दरअसल उनके पिता चेन्नै से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘सोवियत भूमि’ के तेलुगु संस्करण के संपादक थे जो सोवियत संघ के विघटन के बाद बंद हो गई. श्रीकांत जी सपरिवार हैदराबाद आ गए और कई वर्ष तक आंध्र प्रदेश के लोकप्रिय नेता-अभिनेता श्री एन.टी. रामाराव के पी.आर.ओ. के रूप में कार्यरत रहे. एन.टी.आर. के निधन के बाद तेलुगु समाचार पत्रों ‘उदयम’ और ‘वार्ता’ में काम किया. कुछ वर्ष वे ‘वार्ता’ समूह द्वारा संचालित पत्रकारिता विद्यालय के प्राचार्य भी रहे. परिवार के इस साहित्य और राजनीति मिश्रित परिवेश को आत्मसात करते हुए डॉ. जी. नीरजा ने 1995 में माइक्रोबायोलॉजी, जेनेटिक्स और केमिस्ट्री विषय लेकर उस्मानिया विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में बी.एससी. उत्तीर्ण की. इसके बाद मेडिकल लैब टेक्नोलॉजी में पीजी डिप्लोमा भी कर डाला. जैसा कि होना था, इस पाठ्यक्रम के बाद वे एक वर्ष अपोलो अस्पताल में माइक्रोबायोलॉजिस्ट के रूप में कार्यरत रहीं. अर्थात चिकित्सा संबंधी क्षेत्र में जाने का सपना पूरा हो गया. लेकिन पारिवारिक संस्कार शायद इस सपने से अधिक प्रबल था. भाषा और साहित्य का प्रेम बार-बार जोर मारता था. और एक दिन संस्कार ने सपने को जीत लिया. नीरजा ने वह नौकरी छोड़ दी और हिंदी क्षेत्र में छलांग लगा दी. 


2000 ई. में गुर्रमकोंडा नीरजा ने दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के उच्च शिक्षा और शोध संस्थान से प्रथम श्रेणी में एमए हिंदी की उपाधि अर्जित की तथा स्वर्ण पदक प्राप्त किया. सौभाग्यवश उन्हें प्रो. दिलीप सिंह जैसे भाषावैज्ञानिक और प्रो. ऋषभ देव शर्मा जैसे साहित्य मर्मज्ञ अध्यापकों का अहेतुक स्नेह मिला तथा इन दोनों गुरुजन की प्रेरणा से उन्होंने अनुवाद समीक्षा और अनुवाद तुलना जैसे अछूते क्षेत्र में शोधकार्य का निर्णय लिया. 2001 में उन्होंने ‘कुरुक्षेत्र : अंग्रेजी अनुवाद की समीक्षा’ पर एमफिल की शोधोपाधि प्राप्त की तथा एक और स्वर्ण पदक अर्जित किया. आगे उन्होंने ‘श्रवणकुमार कृत उपन्यास ‘प्रेत’ : अंग्रेजी अनुवाद का संदर्भ’ विषय पर शोधप्रबंध प्रस्तुत करके 2006 में पीएचडी उपाधि प्राप्त की. अपने इन शोधकार्यों के आधार पर डॉ. जी. नीरजा को बहुभाषाविद अनुवाद समीक्षक के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त हुई. इस अवधि में उन्होंने स्नातकोत्तर अनुवाद डिप्लोमा और पत्रकारिता डिप्लोमा की परीक्षाएँ भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर डालीं.


एमए के बाद से ही गुर्रमकोंडा नीरजा ने कई विद्यालयों में हिंदी अध्यापन का कार्य आरंभ कर दिया था. पीएचडी के बाद 2007 में उन्हें उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के हैदराबाद परिसर में प्राध्यापक के रूप में विधिवत नियुक्ति प्राप्त हो गई. और यहाँ से शुरू हुआ भाषा और साहित्य की सेवा का उनके जीवन का नया अध्याय. उन्होंने अपनी निष्ठा और श्रमशीलता के आधार पर अल्प अवधि में ही छात्रों के मन में अपनी जगह बना ली. उन्हें स्नातकोत्तर कक्षाओं में सामान्य भाषाविज्ञान, अनुवाद विज्ञान, व्यतिरेकी विश्लेषण, अन्य भाषा शिक्षण, प्रयोजनमूलक हिंदी और समाजभाषाविज्ञान जैसे विषयों की विशेषज्ञ के रूप में जाना जाता है. 


शोध निर्देशक के रूप में भी डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा की उपलब्धियाँ प्रशंसनीय रही हैं. उनके निर्देशन में संपन्न शोधकार्यों की सूची के अवलोकन से यह पता चलता है कि उनका ज्ञान क्षेत्र कितना व्यापक एवं वैविध्यपूर्ण है. उनके द्वारा निर्देशित तुलनात्मक साहित्य और अनुवाद समीक्षा संबंधी शोधकार्यों में तेलुगु-हिंदी कविताओं में विद्रोही चेतना, विश्वनाथ सत्यनारायण कृत ‘वेयिपडगलु’ का हिंदी अनुवाद ‘सहस्रफण’ : अनुवाद समीक्षा, एन. गोपि कृत तेलुगु काव्य ‘कालान्नि निद्रपोनिव्वनु’ का हिंदी अनुवाद : तुलनात्मक अध्ययन, माधवीकुट्टी कृत मलयालम उपन्यास ‘वंडीकालकल’ का हिंदी अनुवाद, मुदिकोंडा शिवप्रसाद के तेलुगु उपन्यास ‘रेज़िडेंसी’ का हिंदी अनुवाद : अनुवाद समीक्षा एवं अनुवाद मूल्यांकन जैसे शोधकार्य सम्मिलित हैं. इसी प्रकार भाषा संबंधी शोधकार्य के रूप में वाणिज्यिक हिंदी : समस्याएँ और संभावनाएँ (बैंकिंग हिंदी के विशेष संदर्भ में) का उल्लेख किया जा सकता है. मीडिया विमर्श जैसे नए क्षेत्र में शोध कराना अत्यंत चुनौतीपूर्ण कार्य है. डॉ नीरजा ने इस चुनौती को स्वीकार करते हुए अलका सरावगी के उपन्यास ‘एक ब्रेक के बाद’ में मीडिया विमर्श, हिंदी ब्लॉगिंग में महिला ब्लॉगरों का योगदान विषयों पर भी शोधकार्य कराए हैं. स्त्री विमर्श डॉ. नीरजा का विशेष रुचि क्षेत्र है जिसका प्रमाण उनके द्वारा निर्देशित महुआ माजी के उपन्यास ‘मैं बोरिशाइल्ला’ में स्त्री विमर्श, चंद्रकांता कृत ‘हाशिए की इबारतें’ में स्त्री विमर्श, नीलम कुलश्रेष्ठ के कहानी संग्रह ‘हैवेनली हेल’ में स्त्री विमर्श, सिम्मी हर्षिता के उपन्यास ‘जलतरंग’ में स्त्री विमर्श, विष्णु प्रभाकर के उपन्यास ‘अर्द्धनारीश्वर’ में स्त्री विमर्श, मनोज सिंह के उपन्यास ‘कशमकश’ में स्त्री विमर्श जैसे शोधप्रबंध बाकायदा देते हैं. इसी प्रकार दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक विमर्श का क्षेत्र भी उन्होंने अछूता नहीं छोड़ा है. इस संदर्भ में उनके द्वारा निर्देशित के.एस. तूफ़ान का दलित विमर्श : ‘टूटते संवाद’ का विशेष संदर्भ, मधुकर सिंह के उपन्यास ‘बाजत अनहद ढोल’ में आदिवासी विमर्श, नई शती के कथा साहित्य में अल्पसंख्यक विमर्श (मुस्लिम समाज के विशेष संदर्भ में) शीर्षक शोधकार्यों का अवलोकन किया जा सकता है. उनके द्वारा निर्देशित अन्य शोधप्रबंधों में श्रीलाल शुक्ल के साहित्य का समाजशास्त्रीय अध्ययन, पुनर्जागरण के संदर्भ में बालकृष्ण भट्ट कृत ‘निबंधों की दुनिया’ का अनुशीलन, अनंत काबरा के कविता संग्रह ‘पड़ाव पर ठहरे कदम’ में सामाजिक यथार्थ, विश्वनाथ अय्यर के ललित निबंधों में दक्षिण भारत की झलक, रामदरश मिश्र के उपन्यास ‘जल टूटता हुआ’ में आंचलिकता, हरिशंकर परसाई के निबंधों में व्यक्तित्व और वैचारिकता (‘निबंधों की दुनिया’ का विशेष संदर्भ), कमलेश्वर के कहानी संग्रह ‘देस-परदेस’ में चित्रित सामाजिक समस्याएँ, उषा प्रियंवदा के कहानी संग्रह ‘एक कोई दूसरा नहीं’ में वस्तु और शिल्प, क्षमा शर्मा के कहानी संग्रह ‘रास्ता छोड़ो डार्लिंग’ में मध्यवर्ग, श्रीलाल शुक्ल के उपन्यास ‘राग दराबारी’ में राजनैतिक चेतना, अमरकांत के उपन्यास ‘सूखा पत्ता’ में आधुनिकताबोध, राजेंद्र अवस्थी की कहानियों में आधुनिकताबोध, रामदरश मिश्र की कहानियों में ग्राम चेतना शामिल हैं. 

'परिलेख हिंदी साधक सम्मान' समारोह (12/6/2014) के अवसर पर प्रकाशित  परिचय पुस्तिका का आवरण 


नीरजा को कविताएँ लिखने का शौक छात्र जीवन से रहा. यदाकदा छपती भी रहीं. लकिन जब 2008 में उन्हें दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की द्विभाषी (हिंदी-तेलुगु) साहित्यिक मासिक पत्रिका ‘स्रवंति’ के संपादन का दायित्व मिला, तब से उनके लेखन में नियमितता आई. यही समय था जब उन्होंने गंभीरता से तेलुगु के पुराने-नए साहित्य का अध्ययन आरंभ किया और सहज सरल भाषा शैली में तेलुगु साहित्य तथा साहित्यकारों के संबंध में लिखना आरंभ किया. उनके तेलुगु भाषा-साहित्य विषयक लेखन को ‘स्रवंति’ के साथ साथ उनके ब्लॉग ‘सागरिका’ के माध्यम से पर्याप्त लोकप्रियता प्राप्त हुई. उनके ऐसे लेखों का एक संग्रह ‘तेलुगु साहित्य : एक अवलोकन’ शीर्षक से 2012 में पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ जिसे सुधी पाठकों और विद्वानों का भरपूर स्नेह मिला. शीर्षस्थ तेलुगु कवि प्रो. एन.गोपि ने इस कृति की प्रशंसा करते हुए लिखा कि “तेलुगु भारत में हिंदी के बाद सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है. अतः तेलुगु में निहित साहित्यिक धरोहर से हिंदी जगत को परिचित कराना अत्यंत आवश्यक है. डॉ. नीरजा केवल विदुषी भर नहीं अपितु समय समय पर अपने आप को अद्यतन रखने वाली आलोचक भी हैं. इसलिए वे स्वाभाविक रूप से इतिहास बोध से भी संपन्न हैं. खास तौर पर समकालीन तेलुगु साहित्य को वे जिस दृष्टि से देख रही हैं, वह निरंतर परिवर्तित होते साहित्य के अनुशीलन का परिचायक है.” इसी प्रकार प्रमुख हिंदी भाषावैज्ञानिक प्रो. दिलीप सिंह ने भूमिका में कहा कि “गुर्रमकोंडा नीरजा ने तेलुगु साहित्य का परिचयात्मक आकलन अपनी इस पुस्तक में दिया है. लेखिका ने जटिलता भरे विस्तार की जगह उन मुद्दों को उभारने की कोशिश की है जिनसे तेलुगु साहित्य की सामाजिकता अथवा लौकिकता का उद्घाटन हो सके और इसके जरिए तेलुगु साहित्य में मनुष्य और मनुष्यता का जो भाव प्रारंभ से ही अंतर्भुक्त है, उभार पा सके. जी.नीरजा की यह पैनी दृष्टि ही पुस्तक की प्राण-रेखा है.” इस पुस्तक की प्रशंसा करते हुए प्रो. ऋषभ देव शर्मा ने लिखा है कि “पुस्तक ‘तेलुगु साहित्य : एक अवलोकन’ में लेखिका डॉ. जी.नीरजा ने तेलुगु के अनेक प्रतिष्ठित साहित्यकारों का साहित्यिक परिचय देते हुए जहाँ एक ओर इस बात का खयाल रखा है कि सूचना और विवेचन दोनों का मणिकांचन संयोग हो सके, वहीं यह भी ध्यान रखा है कि इन निबंधों के माध्यम से हिंदीभाषी समाज आंध्र प्रदेश के सामाजिक-सांस्कृतिक वैशिष्ट्य को भी हृदयंगम कर सके. विषयवस्तु की दृष्टि से यह निबंध संग्रह तेलुगु साहित्य के विविध कालों, विविध विधा प्रकारों, विविध प्रवृत्तियों और विविध साहित्यकारों को समेटे हुए है.” इतना ही नहीं, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के अनुवाद एवं निर्वचन विद्यापीठ के अधिष्ठाता प्रो. देवराज ने नीरजा की इस पुस्तक की विस्तृत समीक्षा करते हुए ‘संकल्य’ मासिक में लिखा है कि “गुर्रमकोंडा नीरजा की इस पुस्तक में अन्नमाचार्य, कृष्णदेव राय, त्यागराज, वीरेशलिंगम पंतुलु, कशीनाथुनि नागेश्वराराव पंतुलु, गुरजाडा वेंकट अप्पाराव, उन्नव लक्ष्मीनारायण, जनकवि श्री श्री, दिगंबर कवि ज्वालामुखी, त्रिपुरनेनि गोपीचंद, आरुद्रा, डी. कामेश्वरी आदि के साहित्यिक अवदान के बारे में भी जानकारी उपलब्ध कराई गई है. स्मरणीय है कि भारतीय नवजागरण का सांस्कृतिक और साहित्यिक परिदृश्य वीरेशलिंगम पंतुलु और गुरजाडा अप्पाराव जैसे कालजयी रचनाकारों के कृतित्व को जाने बिना नहीं समझा जा सकता. नीरजा की पुस्तक से पता चलता है कि वीरेशलिंगम पंतुलु आंध्र साहित्य के भारतेंदु हैं. उन्हें गद्य ब्रह्म और गद्य तिक्कना भी कहा जाता है. उन्होंने आंध्र में जाति-विरोध आंदोलन का सूत्रपात किया था. वे लिखती हैं, “तत्कालीन सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितियों से प्रभावित होकर वीरेशलिंगम ने जनता को चिर निद्रा से जगाया, चेताया, स्त्री सशक्तीकरण को प्रोत्साहित किया, स्त्री शिक्षा पर बल दिया, बालविवाह का खंडन किया, विधवा पुनर्विवाह का समर्थन किया और ज़मींदारी प्रथा का विरोध किया. उनकी कथनी और करनी में कोई अंतर दिखाई नहीं देता. उन्होंने 11 दिसंबर, 1881 को प्रथम विधवा पुनर्विवाह संपन्न करवाया जिसके कारण उनकी कीर्ति देश-विदेश में फ़ैल गई. वीरेशलिंगम पंतुलु ने अपने एक-सौ तीस ग्रंथों से तेलुगु साहित्य को समृद्ध किया, जिनमें राजशेखर चरित्रमु जैसा मौलिक उपन्यास तथा कालिदास के अभिज्ञान शाकुंतलम का तेलुगु रूपांतर शामिल है.” प्रो. देवराज ने आगे लिखा है कि “वर्तमान में भारतीय भाषाओं के साहित्य और भारतीय साहित्य पर नए सिरे से विमर्श की शुरूआत हुई है. इस परिघटना में हिंदी समालोचना से सबसे अधिक सक्रियता की अपेक्षा है. जो समीक्षक हिंदी में हिंदी के इतर भाषाओं और उनके साहित्य पर केंद्रित कार्य करने में समर्थ हैं वे भारतीय साहित्य की परिकल्पना को यथार्थ बनाने में वास्तविक रचना-घटक की भूमिका निभा सकते हैं. इस अभियान में इतनी सावधानी भी ज़रूरी है कि उनके द्वारा प्रतुत सामग्री विश्लेषणपरक और प्रामाणिक हो. उसमें अंतिम निष्कर्ष देने की जल्दबाजी न हो. गुर्रमकोंडा नीरजा भारतीय साहित्य के इस अभियान से जुड़ने को संकल्पबद्ध हुई हैं, उन्हें मेरी शुभकामनाएँ; और उनसे यह अपेक्षा भी कि वे अपने अध्ययन में और अधिक गंभीरता, और अधिक गहराई लाने की कोशिश करेंगी.” 


नीरजा अध्यापक, संपादक, समीक्षक और कवयित्री तो हैं ही, बहुभाषाविद होने के नाते अच्छी अनुवादक भी हैं. उन्होंने हिंदी से तमिल और तेलुगु में तथा अंग्रेजी से हिंदी व हिंदी से अंग्रेजी में काफी साहित्यिक और साहित्येतर पाठों का अनुवाद किया है. तेलुगु के नागार्जुन माने जाने वाले प्रजाकवि पद्मविभूषण डॉ. कालोजी नारायणराव की जन्मशताब्दी पर विशेष रूप से प्रकाशित 100 कविताओं के हिंदी अनुवाद कार्य से वे अनुवादक मंडल के एक सदस्य के रूप में तो संबद्ध रहीं ही, अनुवाद-संपादन का कार्य भी अत्यंत मनोयोग और सफलता से निभाया जिसकी तेलुगु और हिंदी दोनों ही के साहित्यिक हलकों में भूरि भूरि प्रशंसा हुई है. 

परिचयकर्ता  डॉ. पूर्णिमा शर्मा और सम्मानित  डॉ. जी. नीरजा 

हिंदी भाषा और साहित्य की निष्काम सेवा में रत डॉ. नीरजा के काम पर विभिन्न साहित्यिक और शैक्षणिक संस्थाओं का ध्यान जाना स्वाभाविक है. यही कारण है कि उन्हें कई सम्मानों-पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है जिनमें आंध्र प्रदेश हिंदी अकादमी का ‘युवा लेखक पुरस्कार (2012)’ तथा तमिलनाडु हिंदी साहित्य अकादमी का ‘साहित्य सेवी सम्मान (2014)’ उल्लेखनीय हैं. इतना ही नहीं, 2012 में जब हैदराबाद से भाषा, संस्कृति और विचारों की अंतरराष्ट्रीय मासिक पत्रिका ‘भास्वर भारत’ आरंभ हुई तो उसके संपादक-प्रकाशक डॉ. राधेश्याम शुक्ल ने डॉ. नीरजा को मानद साहयक संपादक के रूप में उसमें शामिल करना आवश्यक समझा. 


कुलमिलाकर यह कहना उचित होगा कि डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा हिंदी और तेलुगु के बीच साहित्यिक सेतुबंध के महान अनुष्ठान में अपना शक्तिभर योगदान करने में सदा निरभिमान हिंदी सेवी की तरह तत्पर रहती है.उनको ''परिलेख हिंदी साधक सम्मान -2014'' से सम्मानित किया जाना उचित ही है. मैं उनके उज्ज्वल भविष्य और समृद्ध जीवन के लिए शुभकामना करती हूँ. 


-   डॉ. पूर्णिमा शर्मा, 
208 ए, सिद्धार्थ अपार्टमेंट, गणेश नगर, रामंतापुर, हैदराबाद – 500013, मो. 08125336300