सोमवार, 15 दिसंबर 2014

सामाजिक न्याय


रेडियो वार्ता : डॉ. पूर्णिमा शर्मा 




किसी भी समाज में कई प्रकार के वर्गीकरण और परतें होना स्वाभाविक है परंतु इन वर्गों या परतों के आधार पर मनुष्यों के बीच भेदभाव बरतना न्यायसंगत नहीं है. यहीं से सामाजिक न्याय का विचार जन्म लेता है. इस प्रकार सामाजिक न्याय की बुनियाद सभी मनुष्यों को समान मानने के आग्रह पर आधारित है. इसके मुताबिक किसी के साथ सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक पूर्वाग्रह के आधार पर भेदभाव नहीं होना चाहिए. हर किसी के पास इतने न्यूनतम संसाधन होने चाहिए कि वह ‘उत्तम जीवन’ की अपनी संकल्पना को साकार कर सके. विकसित हों या विकासशील, दोनों ही तरह के देशों में सामाजिक न्याय की इस अवधारणा का प्रमुखता से प्रयोग किया जाता है. कहना न होगा कि व्यावहारिक राजनीति के क्षेत्र में सामाजिक न्याय का नारा वंचित समूहों की राजनीतिक एकजुटता का एक प्रमुख आधार रहा है. सामाजिक न्याय के अंतर्गत उदारता और समानता जैसे मूल्यों के साथ अल्पसंख्यक अधिकार, बहुसंस्कृतिवाद और मूल निवासियों के अधिकार जैसी माँगें भी शामिल रही हैं. स्त्रियों के अधिकारों और स्त्री-सशक्तीकरण के मुद्दों को भी सामाजिक न्याय से ही जोड़ कर देखा जाता है.

वस्तुतः सामाजिक न्याय के विचार ने विभिन्न समाजों में विभिन्न समुदायों को अपने लिए गरिमामय ज़िंदगी की माँग करने और उसके लिए संघर्ष करने के लिए प्रेरित किया है. फिर भी यह याद रखना होगा कि ‘वसु़धैव कुटुम्बकम्’ की प्राचीन अवधारणा के अनुसार पूरी धरती को परिवार मानने की भारतीय संस्कृति सामाजिक न्याय का प्राचीनतम रूप है. लेकिन समाज-विज्ञान में सामाजिक न्याय का विचार उत्तर-ज्ञानोदय काल में सामने आया और समय के साथ अधिकाधिक परिष्कृत होता गया. उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ चलने वाले संघर्षों में मानव-मुक्ति और समाज के कमज़ोर समुदायों के हकों आदि की बातें ज़ोरदार तरीके से उठाई गईं. भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भी सभी समुदायों के लिए सामाजिक न्याय के मुद्दे पर गंभीर बहस चली. इस बहस से ही समाज के वंचित समुदायों के लिए आरक्षण, अल्पसंख्यकों को अपनी आस्था के अनुसार अधिकार देने और अपनी भाषा का संरक्षण करने जैसे प्रावधानों पर सहमति बनी. बाद में ये सहमतियाँ भारतीय संविधान का भाग बनीं.

उन्नीस सौ साठ के दशक से पश्चिम में नारीवादी आंदोलन, नागरिक अधिकार आंदोलन, गे, लेस्बियन और ट्रांस-जेंडर आंदोलन और पर्यावरण आंदोलन आदि उभरे. इनके प्रभाव से स्त्री जाति के समान हक के रास्ते में पितृसत्ता को सबसे बड़ी रुकावट के रूप में रेखांकित किया गया. इसी तरह, गे, लेस्बियन और ट्रांस-जेंडर लोगों ने समाज में ‘सामान्य’ या ‘नार्मल’ की वर्चस्वी रूपरेखा पर सवाल उठाया और अपने लिए समान स्थिति की माँग की. 

इसी क्रम में उन्नीस सौ अस्सी के दशक के आख़िरी वर्षों में, बहुसंस्कृतिवाद की संकल्पना सामने आई. इसमें यह माना गया कि अल्पसंख्यक समूहों के साथ वास्तविक रूप से तभी न्याय हो सकता है, जब उन्हें अपनी संस्कृति से जुड़े विविध पहलुओं की रक्षा करने और उन्हें सार्वजनिक रूप से अभिव्यक्त करने की आज़ादी मिले. इसके लिए यह ज़रूरी है कि उनके सामुदायिक अधिकारों को मान्यता दी जाए. इस तरह सामाजिक न्याय की अवधारणा में एक नया आयाम जुड़ा. निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि सम्माज में लोकतंत्र के मूल्यों को अमली जामा पहनाने के लिए सामाजिक न्याय को सुनिश्चित करना ज़रूरी है.

[प्रसार भारती : हैदराबाद : 16/12/2014]