मंगलवार, 20 जनवरी 2015

धरती रोती है



उसके सीने में धडकती हैं
जाने कितनी कब्रें,
उसके सीने में सुलगती हैं
जाने कितनी चिताएं

वह सबको समेटती है
अपनी गोदी में.
नहीं पूछती किसी भी आने वाले से
उसका धर्म या उसकी जाति.
वह किसी के कर्मों का
लेखा-जोखा भी नहीं पूछती.
सबके लिए खुली हैं उसकी बाहें
एक जैसी करुणा से भरी हुई.

वह धरती माँ है न!
सबको समेटती है अपने भीतर
सबके घाव पोंछती
अपने मुलायम आँचल से,
सबको चिर शांति देती
अपने प्रेम-पूर्ण स्पर्शों से.

उसने देखी है
हज़ारों-हज़ार साल की मनुष्य की यात्रा
नहीं छिपी है उससे किसी की सज्जनता
या दुर्जनता;
उसने देखे हैं लहूलुहान नज़ारे
हज़ारों-हज़ार बार
और हर बार किया है
आने वालों का प्रेम-पूर्ण सत्कार.

आखिर वह धरती माँ है न!
बहुत बड़ा है उसका दिल,
बड़ी विशाल है उसकी गोद,
बहुत पक्का है उसका कलेजा;
वह जल्दी से रोती नहीं.

पर रोती है;
धरती माँ भी रोती है!

अभी उस दिन
वह फिर रोई थी
जब छोटे-छोटे बच्चों के
चिथड़ा-चिथड़ा शरीर
एक के बाद एक
उतारे गए थे उसकी गोद में
मज़हब के नाम पर मौत के घाट उतार कर.

हाँ रोती है धरती माँ भी!
तब हर बार रोती है धरती माँ
जब आदमी की विकास यात्रा
पीछे को मुडती है,
जब नरपशुओं के नाखून
मासूमों के गले में उतरते है.
जब मासूमों का खून
माँओं के आँचल पर गिरता है
तो रोती है धरती माँ
आदमी की हैवानियत से
त्रस्त होकर.

कब सुनेगा आखिर आदमी
धरती की कराहों को?

कहीं ऐसा न हो
सुलग उठें
सोई हुई सारी चिताएं,
पलट जाएं
दबी हुईं सारी कब्रें!

अगर ऐसा हुआ
तो धरती माँ
फूट-फूट कर रोएगी.

-पूर्णिमा शर्मा

18/ 1/ 2015.