शुक्रवार, 11 सितंबर 2015

मोक्ष


भारतीय मनीषा ने बहुत पहले ही मानव जीवन के चरम मूल्यों के रूप में चार पुरुषार्थों की अवधारणा विकसित की थी. ये चार पुरुषार्थ हैं – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष.  धर्म का संबंध विवेक पूर्वक अपने कर्तव्य के पालन से है तो अर्थ का संबंध धर्मपूर्वक जीवन की समस्त सुख-सुविधाओं को जुटाने से है. धर्म और अर्थ के माध्यम से अपनी कामनाओं की पूर्ति काम से संबंधित है. इसीलिए यह कहा गया है कि धर्म से अर्थ, अर्थ से काम तथा काम से पुनः धर्म का सम्यक उद्भव होता है. ये तीन ही मूल लौकिक पुरुषार्थ हैं. इन तीनों की सम्यक संप्राप्ति मनुष्य के भीतर संतोष और तृप्ति ही नहीं, चरम भोग के बाद त्याग और विसर्जन की प्रवृत्ति को भी जगाती है. यहीं से चौथे पुरुषाथ अर्थात मोक्ष का क्षेत्र आरंभ होता है. प्रायः मोक्ष का अर्थ यह समझा जाता है कि नाना योनियों में भटकता हुआ जीव जब आवागमन के चक्र और कर्म-बंधन से मुक्त हो जाता है तो इसी को मोक्ष या निर्वाण कहा जाता है. मोक्ष या निर्वाण की इस दशा में जीव अपने शुद्ध और मूल स्वरूप को प्राप्त कर लेता है अर्थात माया के आवरण से मुक्त होकर सत-चित-आनंद स्वरूप ब्रह्म से एकाकार हो जाता है.
यह तो हुई भारतीय मूल्य व्यवस्था के सन्दर्भ में मोक्ष की आध्यात्मिक व्याख्या. लेकिन लोक-सामान्य की दृष्टि से मोक्ष का अर्थ है मुक्ति या परम स्वतंत्रता. भौतिक बंधनों से ही नहीं, मनुष्य को मानसिक और आत्मिक बंधनों से भी मुक्ति  की आवश्यकता होती है क्योंकि हमारा चिंतन और हमारे कर्म रूढ़ि और संस्कार बनकर जब तक हमारा पीछा करते रहते है, तब तक हमें वह शांति प्राप्त नहीं होती जिसे मोक्ष कहा गया है. याद रहे कि जब तक मोक्ष न हो तब तक हमें भटकते रहना पड़ता है. इस भटकाव में हम देहधारी प्राणी ही नहीं देह-हीन प्रेत या ब्रह्म-राक्षस भी बन सकते हैं. कहने का अभिप्राय यह है कि जब तक हम अपनी ईगो से, या अपने अहम् से, मुक्त नहीं होते तब तक मुक्तिबोध के ब्रह्म-राक्षस की तरह किसी न किसी प्रकार की नीच ट्रेजेडी में फंसते रहते हैं.  
दो पाटों के बीच फंसकर सदा बंधन में रहने से बचने का उपाय भारतीय मनीषा ने यह बताया है कि जो भी अर्जित और सर्जित किया है उसे लोक के निमित्त अर्पित और विसर्जित कर दो. यही कर्म-संन्यास है और यही मोक्ष का सर्वोत्तम मार्ग है. ऐसा करके आप पितृ ऋण , गुरु ऋण और प्रकृति ऋण या देव ऋण से मुक्त हो सकते हैं. इन तीन ऋणों से मुक्त होने पर ही आपको मोक्ष की पात्रता मिल पाएगी. मोक्ष की पात्रता आना ही मोक्ष की उपलब्धता है.
अतः आइए, अपनी समस्त इच्छाओं, कर्मों और उपलब्धियों को लोक के कल्याण के लिए समर्पित और विसर्जित कर दें. यही मोक्ष का द्वार है.

-          पूर्णिमा शर्मा 

आसन

स्थिर होकर बैठना आसन कहलाता है. इसके लिए जिस किसी शारिरिक मुद्रा का उपयोग किया जाता है वह भी आसन कहलाती है और जिस आधार पर बैठा जाता है उसे भी आसन कहते हैं. हमारे देवतागण अलग-अलग प्रकार के आसनों पर विराजते हैं. उदाहरण के लिए लक्ष्मी जी हों या प्रजापति ब्रह्मा, दोनों को कमल का आसन पसंद है. शिव जी का आसन बाघम्बर का है तो विष्णु जी ने शेषनाग को ही अपना आसन बना रखा है. राजा लोग सिंहासन पर आरूढ़ हुआ करते हैं. मुग़ल काल में तो एक प्रतापी और कलाप्रिय सम्राट ने मयूरासन बनवाया था. गरीब किसान-मजदूर जब थक कर आराम करता है तो धरती ही उसका आसन बन जाती है. कहने का आशय यह है कि जिस स्थान और मुद्रा में आपको स्थिर रहने में सुविधा प्रतीत हो, वही आसन है. 

चित्त को एकाग्र और शांत करने के लिए आसन बड़े काम की चीज़ है. आसन सुखकर हो तो वही सुखासन बन जाता है और आप लंबे समय तक उस में स्थिर रहकर आध्यात्मिक से लेकर भातिक जगत तक के सारे कर्म आनंदपूर्वक संपन्न कर सकते हैं. परंतु यदि आसन कठिन या कठोर हो तो कुछ पल भी स्थिर रहना असंभव प्रतीत होता है. इसीलिए हठयोगी लोग ऐसे आसनों का अभ्यास करते रहते हैं जो आसान नहीं होते. राजकाज में लगे हुए लोग भी एक तरह के हठी ही होते हैं और हठपूर्वक ऐसे आसनों को खोज-खोज कर उनकी हठ-साधना करते रहते हैं जो सुख-सुविधा तो बहुत देते हैं लेकिन मन की शांति को हर लेते हैं. इसीलिए कहा जाता है कि उच्च राजनैतिक पदों के आसन सही अर्थों में काँटों के आसन होते हैं और इन पर बैठने वाले स्थिर नहीं रह पाते. 

स्थिर रहने के लिए आसन अर्थात एक स्थान पर एक ही मुद्रा में लंबे समय तक बैठने का अभ्यास ज़रूरी है. आसन के अभ्यास से शारिरिक-मानसिक संतुलन प्राप्त होता है और आध्यात्मिक शांति की उपलब्धि की संभावना बढ़ जाती है. चंचलता या अस्थिर-चित्तता से मुक्त होने के लिए किसी भी सुविधाजनक आसन अर्थात सुखासन में बैठकर अपने लक्ष्य की सिद्धि के लिए चिंतन, मनन, कर्म और साधना करने से कठिन से कठिन कार्य भी सिद्ध हो सकते हैं. ध्रुव से लेकर वाल्मीकि तक की गाथाएं इस सत्य को प्रमाणित करती हैं कि आसन-सिद्धि ही लक्ष्य-सिद्धि का आधार है.

अतः आइए, सुखपूर्वक यथारुचि आसन में बैठकर अपने कर्त्तव्य कर्म में जुट जाइए. हाँ, जब थकान लगे तो शवासन करना न भूलिए – इससे आपको पुनः कर्मरत होने की ऊर्जा मिलेगी,

- पूर्णिमा शर्मा 

तपस्या


किसी कार्य की सिद्धि के लिए अपनी समस्त शक्ति से कठोर साधना करना तपस्या है. आपने सुना होगा कि बहुत से महात्मा किसी भी प्रकार के ऋतु परिवर्तन की परवाह किए बिना इस प्रकार की साधना किया करते हैं जो सामान्य जन के लिए अकल्पनीय है. उदाहरण के लिए वे जनवरी के महीने में बर्फीले जल-प्रवाह में निर्वस्त्र खड़े रहकर जप करते रहते हैं या मई-जून के भीषण गरमी के दिनों में गरम रेतीले मैदान में भरी दुपहरी अपने चारों ओर आग जलाकर पूजा में मग्न रहते हैं. इस तरह वे अपने तन-मन को विपरीत परिस्थितियों में अविचलित रखने और सहन शक्ति को बढाने का अभ्यास किया करते हैं. यही उनकी तपस्या है. लेकिन इस प्रकार प्रकृति के विरुद्ध हठ करना या जिद करना तपस्या का एक रूप भर है. वास्तव में तो अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कठोर श्रम करना ही तपस्या है.

ध्यान रहे कि केवल आध्यात्मिक लक्ष्य की पूर्ति की साधना को ही तपस्या मानना भूल होगी. किसान जब फसल उगाने की साधना में व्यस्त होता है या मजदूर जब कारखाने में जी-तोड़ मेहनत कर रहा होता है, तो वास्तव में वह किसानी और मजदूरी भर नहीं, बल्कि तपस्या कर रहा होता है. विपरीत परिस्थिति में भी अविचल रहना और दृढ़ता पूर्वक अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर रहना ही वास्तविक उपासना और तपस्या है. 

आपको याद होगा कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में लोकमान्य तिलक ने हमारे देश को ‘स्वतंत्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है’ जैसा मंत्र देकर देशवासियों का आह्वान किया था कि स्वतंत्रता प्राप्ति के लक्ष्य के उपलब्ध होने तक विदेशी शासन के विरुद्ध संघर्ष करते रहें. इससे पहले स्वामी विवेकानंद ने जन –जागरण की पुकार लगाई थी और उपनिषद के हवाले से कहा था कि हे भारत के नागरिको! उठो, जागो और तब तक संघर्षरत रहो जब तक अभीष्ट की प्राप्ति न हो जाए. सुभाष चन्द्र बोस, सरदार भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद जैसे भारतमाता के सपूतों ने गुलामी की जंजीरें काट डालने के लिए अपने प्राणों की बलि दे दी. महात्मा गांधी ने जब ‘करो या मरो’ का नारा लगाया तो भारतवासी तमाम तरह के अत्याचारों को सहते हुए भी अविचलित रहकर अहिंसक संघर्ष में डट गए. हमारा मानना है कि ये समस्त देशभक्त वास्तव में सच्चे तपस्वी थे और आज़ादी के लिए की गयी इनकी कठोर साधना ही आधुनिक युग के सन्दर्भ में सच्ची तपस्या थी.

तो आइए, हम भी अपने-अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अविचलित साधना के मार्ग पर अग्रसर हों – यही कर्मशील व्यक्ति के लिए वास्तविक तपस्या है!

- पूर्णिमा शर्मा

ध्यान



मनुष्य की विशेषता का आधार है उसका मन. मन का स्वभाव है चंचलता. आपने अनुभव किया होगा कि मन तनिक देर भी एक स्थान पर नहीं टिकता. यहाँ तक कि जब कभी आप आध्यात्मिक भाव से अपने इष्ट का चिंतन-मनन करने बैठते हैं, यह चंचल मन तब भी चैन से बैठता नहीं है. जैसा कि संत कबीरदास कह गए हैं, हमारे हाथ में माला घूमती रहती है, हमारे मुंह में जीभ घूमती रहती है लेकिन मन इन दोनों का साथ नहीं देता बल्कि सारे जगत में विचरण करता रहता है और इस प्रकार इष्ट का स्मरण भी मात्र यांत्रिक क्रिया बन कर रह जाता है; मानसिक क्रिया नहीं बन पाता – ‘माला तो कर में फिरे, जीभ फिरे मुंह माहिं / मनुआ तो चहुँ दिसि फिरे, यह तो सुमिरन नाहिं.’ यही कारण है कि महात्मा बुद्ध ने अपनी साधना पद्धति में मन की चंचलता पर नियंत्रण के लिए सम्यक ध्यान का प्रावधान किया.


आपने यह भी अनुभव किया होगा कि चौबीसों घंटे हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ जो ज्ञान अर्जित करती रहती हैं तथा जो कर्म करती रहती हैं, वह सब स्वतः चलता रहता है और हमें यह भान तक नहीं होता कि हम दिन भर में क्या-क्या देखते-सुनते-सूंघते-छूते-चखते रहते हैं. यदि हम इन सबके प्रति जागरूक हो जाएं तो स्वतः ही मन की चंचलता दूर हो जाएगी और वह प्रस्तुत विषय पर एकाग्र होने लगेगा. मन की अस्थिरता के दूर होने और किसी एक स्थान पर एकाग्र होने का ही नाम ध्यान है. आप आज ही से एक प्रयोग करके देखें. आप जब भी कुछ खाएं या कुछ पियें, उस समय प्रयास करें कि आपका ध्यान पूरी तरह खाने या पीने की क्रिया पर हो. एक-एक कौर या एक-एक घूँट पर ध्यान देंगे तो आप उस खाद्य या पेय पदार्थ का सम्यक रूप में सेवन कर सकेंगे – बस सावधानी इतनी सी रखनी है कि उस समय कुछ भी सोचना नहीं है. इसी प्रकार दूसरा प्रयोग यह करके देखें कि कमरे में टंगी हुई दीवार-घडी की टिक-टिक को सम्यक रूप से सुनने का प्रयत्न करें – कुछ इस तरह कि कुछ भी सोचें नहीं और टिक की एक भी ध्वनि आपके अनुभव में आने से छूटे नहीं. यदि आपने डेढ़ मिनट तक भी ऐसा कर लिया तो आप ध्यान की दिशा में अग्रसर जो जाएंगे. यही कारण है कि ध्यान लगाने के लिए साधक को यह परामर्श दिया जाता है कि आप कुछ भी सोचे बिना अपनी आती-जाती साँसों को देखने का अभ्यास कीजिए. यदि आप ऐसा कर पाते हैं तो समझिए कि आप ध्यान के सही मार्ग पर हैं. इसके लिए हठ करना या जिद करना आवश्यक नहीं बल्कि मन को एकाग्र करना भर काफी है. 


तो फिर सोचना क्या है? मन के घोड़े की लगाम अपने हाथ में लीजिए और हर कर्म को जागरूकता के साथ कीजिए तो आपके व्यक्तित्व में सकारात्मक परिवर्तन होने आरंभ हो जाएंगे. यही ध्यान का प्रत्यक्ष लाभ है.
- पूर्णिमा शर्मा