बुधवार, 20 जनवरी 2016
नन्हीं लाल चुन्नी – 2
नन्हीं
लाल चुन्नी!
यह कहाँ
आ गईं
बिटिया
तुम?
नानी
के लिए फूल लेने आई थी न?
पर अब
इस बगिया में
फूल
नहीं खिलते
अब तो
यहाँ
हवा भी
हाथ में खंजर लेकर चलती है,
नई
कोपलें
मातम
में लिपटी रहती हैं,
फूलों
से
खून
टपकता है.
वह जो
देख रही हो ण तुम
फुलवारी
के बीचों-बीच;
समाधि
है तुम्हारी छोटी बहन की.
वह भी
आई थी
फूल
चुनने
और मारी
गई थी
घात
लगाए बैठे
भेडियों
से लड़ते हुए.
लौट
जाओ, नन्ही लाल चुन्नी!
इससे
पहले कि
भेडिए
तुम पर भी टूट पड़ें.
नहीं,
अब हमारे मुल्क में
न
लकडहारे होते हैं;
और न कुल्हाड़ियाँ!- पूर्णिमा शर्मा
एक पेड़ छतनार
एक पेड़
हुआ करता था यहाँ
बरगद
का
छतनार.
सरदी,
गरमी, बारिश, आंधी, तूफ़ान
और
बर्फबारी
झेलता
रहा बरसों-बरस;
बचाता
रहा हमें
प्रकृति
के प्रकोप से.
हम बड़े
सुरक्षित थे
बरगद
की गोद में.
एक दिन
एक
गिद्ध आया,
बैठ
गया
बरगद
के शिखर पर,
फैलाने
लगा अपने पंख.
दैत्याकार
पंख
और-और फैलते
गए,
ढक
लिया
पूरे
का पूरा छतनार महावृक्ष.
टूट
गया
हवाओं
से
पत्तियों
का रिश्ता.
एक-एक
कर सूख गई
हरी
डालियाँ.
और एक
रात
महाविस्फोट
के साथ
अरराकर
ढह गया
हमारा आशियाना.
तबसे
आसमान
में गिद्ध नाच रहे हैं
और
धरती पर हम
तरस
रहे हैं प्राणवायु को.
- पूर्णिमा शर्मा
- पूर्णिमा शर्मा
ऋतु परिवर्तन
धरती
की देह पर
कौन
लगा गया
हल्दी
रातों-रात?
किसने
दहका दिए
टेसू
के ये लाल गाल?
संध्या
के आकाश में
मोर
पंख से
कौन
लिख गया
खुशियों
का पैगाम?
किसने
पिला दी
कटोरी
भर-भर कर मदिरा
कि महक
उठे आम?
लगता
है, होली आ गई.
- पूर्णिमा शर्मा
- पूर्णिमा शर्मा
वसंत की प्रतीक्षा
पैंसठ
साल पहले
कैद से
छूटकर
बाहर
निकला था वह,
शिशिर
ऋतु में.
सब तरफ
पतझड़
था;
पेड़
पीले पत्ते झाड़ रहे थे.
उसने
सोचा –
वसंत
आएगा,
पेड़
हरे होंगे,
नीले,
पीले, गुलाबी, लाल
फूल
मुस्कुराएंगें
झूमती
डालियों पर.
पैसठ
साल से वह खड़ा है
वसंत
की प्रतीक्षा में
और
आसमान हर साल
उगल
रहा है शोले ,
धरती
धधक रही है,
दिशाएं
दहक उठी हैं.
लोकतंत्र
कब आएगा,
कब
आएगा वह रामराज्य
जब मिट
जाएंगें
सारे
दैहिक, दैविक, भौतिक ताप?
अभी तो
हर तरफ
फुफकार
रहे हैं
जहरीले सांप!- पूर्णिमा शर्मा
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